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७०० साल पुरान मैथिली नाटयकृति: धूर्त्तसमागम

मिथिलाक सूरता-वीरतापूर्ण इतिहासकेँ अपन देश-परिवेशसँ बाहर जाएक फैलबाक वा व्यापकता एवं विस्तृति पएबाक अवसर नइँ भेटल छै।

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मिथिलाक इतिहासमे वीरता एवं बहादुरीक गाथा तेहन मुखर नइँ देखल जाइत अछि। यद्यपि सलहेस, लोरिक, दीना-भद्री जेहन गाथा-नायकसभक जीवनीमे वीरताक बातसभ अवश्य अबैत अछि। मुदा ताहुमे मानवीय संवेदना, सुशासन, आपसी सौहार्द्र जेहन पक्षसभ विशेष प्रखर अछि। आ ई गाथासभ मिथिलाक आम जनमानसधरि मात्र सीमित रहल अछि।

भंगिमामे “धूर्त्त समागम” प्रस्तुति

तात्पर्य ई जे मिथिलाक सूरता-वीरताजन्य इतिहास अपन देश/परिवेशसँ बाहर जा क फैलल जेहन व्यापकता एवं विस्तृती नइँ पौने अछि। मुदा विद्वता, शास्त्रार्थ, कला, काव्य, दर्शन, विदेहत्व आदि मिथिलाक पर्यायक रूपमे चिन्हित होइत आएल अछि। अइ बातसभसँ ई सिद्ध होइत अछि जे अइ ठामक जनजीवन शान्त आ सौहार्द्रपूर्ण छल। शान्ति-सौहार्द्रक वातावरण कला-साहित्यक विकास लेल अनुकूल होइत अछि। मिथिला सभ्यता आ संस्कृतिक झण्डा एखनोधरि पूरे आर्यावर्तमे फहराइत रहबाक मुख्य कारण इएह होएबाक चाही।

परापूर्वकालसँ कला-साहित्यक सङ्गहि ज्ञान-विज्ञानक केन्द्र रहल मिथिलामे मध्यकाल (ज्योतिरीश्वरक समयसँ मल्लकालधरि) मे नाट्य-सङ्गीतक क्षेत्रमे सेहो यथेष्ट काजसभ होबए लागल। साहित्यमे अपन भाषाक प्रयोग करबाक परम्परा विकसित नइँयोँ रहल समयमे मैथिल विद्वानसभ विविध साहित्यिक गतिविधिमे निरन्तर संलग्न रहैत आएल छलथि।

अपन मैथिली गीतसभक कारण जनमनमे अमर भेल मैथिल कविकोकिल विद्यापति सेहो कतेको कृतिसभ संस्कृते भाषामे लिखलथि। अइ क्रममे ओ ‘गोरक्षविजय’ नामक नाटक लिखलथि। ई नाटक मैथिली नाट्य-साहित्यके नीँवकेँ सुदृढ करबाक दिशामे एकटा मीलक पाथर सावित भेल।

विद्यापति कर्णाटवंशीय राजासभक समयमे सुदृढ भेल नाट्य-सङ्गीतक परम्पराकेँ अगाडि बढ़एबाक क्रमहिमे नाट्य सिर्जना कएलथि वा ई मिथिलामे पहिलेसँ रहल परम्पराक निरन्तरता छल, अइ विषयमे इतिहास ओतेक प्रष्ट नइँ अछि। कारण कर्णाटवंशीय राजासभक राजधानी सिम्रौनगढ ध्वस्त करबाक क्रममे मुगलसभ ओहिठामक ऐतिहासिक दस्तावेजसभ सेहो नष्ट क देने रहै।

मुदा इतिहास विशृंखलित कएल गेलोपर मैथिली नाटक कहि क किटान कएल गेल पहिल कृति कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर ठाकुर (ई. १२८०–१३४०) कृत ‘धूर्त्तसमागम‘ रहल बात विभिन्न साक्ष्यक आधारपर स्थापित अछि।

एखनधरि प्राप्त प्रमाणसभक आधारपर मैथिलीक पहिल नाट्यग्रन्थ 'धूर्त्तसमागम' नामक प्रहसनेकेँ मानल गेल अछि। 

‘अनङ्गसेना’ नामक एकटा वेश्याक लेल ‘विश्वनगर’ नामक सन्न्यासी आ ‘स्नातक’ नामक ओकर शिष्यबीच भेल प्रतिस्पर्धाकेँ ‘धूर्त्तसमागम‘क मूल विषय बनाओल गेल अछि। गुरु-शिष्यमे के अनङ्गसेनाकेँ अपन बनाबए, से बात नइँ मिललापर ओ दूनू गुरु-शिष्य पञ्चैती करएबाक लेल ‘असज्जाति मिश्र’ नामक ब्राह्मण ओहिठाम ‘अनङ्गसेना’केँ सेहो ल क जाइत अछि।

मुदा ओहिठाम असज्जाति स्वयं अनङ्गसेनाप्रति आकर्षित भ जाइत अछि आ अनङ्गसेनापर पहिल हक अपने रहल दाबी करैत अछि।

अइ तरहेँ जखन ई देखल जाइत अछि जे एकटा बूढ़ ब्राह्मण खेल उलटाब लागल अछि तँ ओकर (असज्जाति मिश्रक) शिष्य ‘बन्धुवञ्चक’ ओहन बूढसङ्गे किए जाइछेँ कहि अनंगसेनाकेँ फुसलाबैत अछि। तखने ‘मूलनाशक’ नामक हजाम ओहिठाम अबैत अछि आ ओ ओकर हजामतक भुगतानस्वरूप अनङ्गसेनापर अपन दावेदारी पेश करैत अछि। एवं प्रकारसँ अइ नाटकमे धूर्ते-धूर्तसभक गजब जमघट करबाओल गेल अछि आ ताहि आधारपर नाटकक शीर्षक ‘धूर्त्तसमागम‘केँ सार्थकता प्रदान कएल गेल अछि। यदि अनङ्गसेनाकेँ राजकीय सत्ता मानि लेल जाय तँ अपन देश मात्रे नइँ, सौँसे दक्षिण एसियायी परिवेशमे लिखलाक सात सय वर्षक बादो ज्योतिरीश्वरक ‘धूर्त्तसमागम‘ पूर्णतः सार्थक रहल देखल जाइत अछि। अइ अर्थमे मैथिलीक पहिल नाटक ‘धूर्त्तसमागम’केँ कालजयी कहब अत्युक्ति नइँ हेत।

अइ नाटकक कालजयीता तथा मुख्य चरित्रसभक विषयमे प्रसिद्ध कवि तथा सामयिक टिप्पणीकार रोशन जनकपुरी लिखैत छथि–’धूर्त्तसमागम’केँ कविशेखराचार्य ज्योतिरीश्वर प्रहसन कहने छथि। प्रहसन हास्यप्रधान नाट्य विधा अछि। मुदा हास्य जाहि विपरीत विकृत परिस्थितिमे जन्रमैत अछि, ताहि परिस्थिति आ पात्रमे स्वयंकेँ प्रतिस्थापित कएल जाय तँ ओ स्थिति एकटा कारुणिक आ त्रासदीयुक्त अनुभूत होइछ। ‘धूर्त्तसमागम’मे सेहो प्रत्यक्षतः पर्याप्त हास्य छै।

मुदा, अइमे वर्णित समाजक अगुवा आ प्रतिष्ठित वर्ग, धनी, साधु आ शासनतन्त्र जाहि तरहेँ अनैतिकता तथा पाखण्डमे डुबल अछि, आ जनसामान्यकेँ केवल भोगक वस्तुक रूपमे जाहि तरहेँ प्रस्तुत कएल गेल अछि, तकर विवेकसम्मत विश्लेषण कएलापर क्षोभ, त्रासद आ करुणायुक्त स्थिति उत्पन्न होइत अछि, जे ‘धूर्त्तसमागम’केँ एकटा उत्कृष्ट व्यङ्ग्यक पाँतिमे ठाढ़ करैछ।

स्वार्थमय ईश्वरभक्ति, भोग आ शासकप्रतिक भाटपनासँ भरल समयक सामाजिक पाखण्डकेँ अत्यन्त सशक्त रूपेँ उजागर कर वला ‘धूर्तसमागम’मे ज्योतिरीश्वरक सामाजिक व्यङ्ग्यदृष्टिसँ चमत्कृत करैत अछि। अइ अर्थेँ तुलना कएलापर वर्तमान समकालीनतामे सेहो ई उत्कृष्ट व्यङ्ग्य प्रमाणत होइत अछि।

ज्योतिरीश्वर ठाकुर सिम्रौनगढ राजधानी रहल तिरहुत/मिथिला राजदरबारक विद्वान सभासद् छलथि। ओहि समयक दौरान ‘गयासुद्दीन तुगलक’ तिरहुत (मिथिला) क राजधानी सिम्रौनगढपर आक्रमण कएलकै। कर्णावंशीय नरेश हरिसिंहदेव ओहि आक्रमणक प्रतिकारमे असफल भेलाक बाद बन्धुबान्धवसमेत नेपाल उपत्यका पलायन कएलथि। हरिसिंहदेवक राजदरबारमे मन्त्री रहल चण्डेश्वर ठाकुर नेपालमे पहिनइँँ अपन राज्य स्थापना क लेने छलाह।

नेपाल उपत्यकाक मल्ल राजासभक सङ्ग सेहो हरिसिंह देवक नीक सम्बन्ध छलनि। हुनकासभक बीच वैवाहिक सम्बन्ध सेहो स्थापित छल। चण्डेश्वरद्वारा सञ्चालित राज्य सिम्रौनगढ राजधानी रहल मिथिला राज्यहिक अधीन छल आ हरिसिंह देव चण्डेश्वरकेँ अपन समकक्षीजकाँ मान्यता देने छलथि। मुगल आक्रमणसँ पराजयपश्चात् हरिसिंह देव आ हुनकर भारदारसभ नेपाल अएलथि। ज्योतिरीश्वर सेहो हुनके सङ्ग अएलथि।

ज्योतिरीश्वर नेपाल अएलाक पश्चाते ‘धूर्त्तसमागम’क रचना कएने रहथि से विद्वानसभक धारणा रहल अछि।
ज्योतिरीश्वरक ‘वर्णरत्नाकर’केँ मैथिलीक पहिल गद्यग्रन्थक गौरव प्राप्त अछि। ई ग्रन्थ ‘वर्णरत्नाकर’ मैथिलीक मात्रे नइँ, अपितु सम्पूर्ण उत्तर भारतीय भाषासभमध्य प्रथम गद्यग्रन्थ होयबाक गौरव सजेहने अछि।

‘धूर्त्तसमागम’क भाषा तथा किछु संवादसभ मैथिलीमे नइँ भ क संस्कृते भाषामे रहल अछि। अइ कारण किछु विद्वानसभ अइ कृतिकेँ संस्कृत रचनाक कोटीमे सेहो रखैत छथि। तीन भाषाक प्रत्यक्ष प्रयोग भेल ‘धूर्तसमागम’मे मञ्च-निर्देशकके लेल संस्कृत आ प्राकृत भाषाक प्रयोग कएल गेल अछि तँ गीतसभ आ भाषिक परिवेश तथा किछु संवादसमेत मैथिलीमे अछि। मुदा, एकरा मैथिलीए भाषाक साहित्य मानल जएबाक मुख्य आधारक रूपमे अइमे प्रयुक्त ज्योतिरीश्वरेक मैथिली गीतसभकेँ मानि सकैत छी। जम्मा २० टा मैथिली गीत प्रयुक्त कृति ‘धूर्त्तसमागम’क पछिला पाण्डुलिपिमेसँ आठटा गीत कम भेल अछि।

पाण्डुलिपिसँ किछु पन्ना नष्ट भेलाक कारण कृतिमे ई अवस्था आएल अछि। जे होय, गीतक सङ्गे एकर सूत्रधार, विश्वनगर, मृत्ताङ्गार ठाकुर आ असज्जाति मिश्र– ई चारि पात्र संस्कृत बजैत अछि। आ आओर पात्रसभमे स्नातक, मूलनाशक, विदुषक, नटी, सूरतप्रिया, अनङ्गसेना प्राकृतमे संवाद बजैत अछि। तेँ मात्रे चारि पात्रक संस्कृतमे बाजल संवादक आधारपर एकरा संस्कृतक रचना कहब उचित नइँ से तर्क किछु समालोचकसभक छनि।

अइ तरहक विचार राख बला डा. जयकान्त मिश्र, महेन्द्र मलङ्गिया, डा. देवशङ्कर ‘नवीन’, रमेश रञ्जन, रोशन जनकपुरीलगायतक समालोचकसभक छथि। डा. नवीन कहैत छथि जे ‘धूर्त्तसमागम’मे प्रस्तुत वातावरण, शिल्प, संवादक चरित्र आ समग्र गीतसभक प्रभावकारी स्वरूपक आधारपर अइ कृतिकेँ मैथिलीएक रचना कहब अनुपयुक्त नइँ हेत।

अइमे समाविष्ट गीतसभ फगत गीतके लेल मात्रे नइँ भ नाटककेँ अगाडि बढाब बला माध्यमक रूपमे वा कथानककेँ ल क चल बला प्रक्रियाक रूपेँ प्रयुक्त भेल अछि। एतबे नइँ, संवादक ठामपर मैथिली आ संस्कृत दूनूक मिश्रित रूपसमेत प्रयुक्त भेल अछि। संस्कृतेमे बाजल जाएबला संवादसभकेँ लेल ‘संस्कृतमाश्रित्य’ कहि निर्देश देल गेलाक कारण सेहो ‘धूर्त्तसमागम’ मैथिली नाटक रहल बातकेँ बेसी बल भेटैछ। ‘धूर्त्तसमागम’क गीतसभ नाटकक अभिन्न अंगक रूपमे रहल अछि। यथा– असज्जाति मिश्रद्वारा अनङ्गसेनापर अपन दाबेदारी पेश कएलाक बाद मूलनाशक हजामक सङ्गे स्नातक सेहो ‘जोँककेँ जोँक नइँ धरै छै’ कहिक ओहिठामसँ चलि जाइछ। अइ प्रसङ्गकेँ निम्न गीतद्वारा अभिव्यक्ति देल गेल अछि–
अरे रे सनातक तोरहि कुमान्ति।
अनंगसेना हरि लेल असजाति।।
कतए विचार कराओल आनि।
जन्हिक चरित मूलनाशक जानि।।
हेरितहि हरि धन लए गेल चोर।
हाथक रतन हरायल मोर।।
क के होएबह हरि अनुरागे।
जोँकक आग गोतल न लागे।।
कविशेषर जोतिक एहु गाव।
राए हरसिंह बुझए रस भाव।।
धूर्त्तसमागमक प्रस्तावनामे एकरा शृङ्गार-रसप्रधान कहल गेल होइतो अइ कृतिक बनोट तथा संवाद आदिसँ ई हास्यरसक नाटक रहल बात स्पष्ट होइछ। एकर किछु प्रसङ्ग तँ हास्यरससँ आओर बेसी शृंगारक नामपर किछु अश्लीलताधरि सेहो पहुँच गेल देखाइत अछि। मुदा, वस्तुतः मिथिला राज्य विशृंखलित भेलाक पश्चात जनजीवनक विविध पक्षमे देखल गेल विकृति, विसङ्गति, भ्रष्टाचार, अनाचार आदिकेँ अइ कृतिमे प्रतिविम्बित करबाक चेष्टा कएल गेल अछि।

‘धूर्त्तसमागम’क एकटा पात्र मृताङ्गार ठाकुर राष्ट्रभङ्गक बात कएने अछि। अइ समस्त पक्षसभकेँ दृष्टिगत कएलापश्चात मिथिलाक तत्कालीन राजनीतिक अस्थिरताजन्य ऐतिहासिक तथ्यकेँ ‘धूर्त्तसमागम’मे प्रतिबिम्बित करैत देखल जाइत अछि।

नाटक ‘धूर्त्तसमागम’क प्रारम्भिक मञ्चन काठमाण्डूए उपत्यकामे भेल होयबाक चाही। किए तँ नाटक लेखनसँ बेसी मञ्चनक विषय अछि। ओहुना तत्कालीन समयमे प्रकाशनक समुचित व्यवस्था नइँ भेल परिप्रेक्ष्यमे पाण्डुलिपिक प्रयोग मञ्चनक लेल आधारभूमि जुटाब मात्रे होइत रहल होयत। तेँ विभिन्न कालखण्डमे अइ नाटककेँ डा. जयकान्त मिश्र लगायतक साहित्यकारसभ सम्पादन-प्रकाशन कएने छथि। मुदा वि.सं. २०७५ सालमे भारतक दिल्लीमे सक्रिय मैलोरङ्ग (मैथिली लोकरङ्ग) नामक संस्थाक शत्प्रयाससँ अइ नाटककेँ समयानुकूल भाव-भंगिमाक सङ्ग मञ्चपर प्रस्तुत कएल गेल छल।

आओर बेसी महत्त्वपूर्ण छल काठमाण्डूमे लिखल आ प्रारम्भिक मञ्चन भेलाक ६९३ वर्षपश्चात ओहि नाटकक काठमाण्डूक प्रेक्षालयमे पुन: मञ्चन होयब। पछिला समयक मञ्चनजन्य परिवेश आ विचारसभ समटिक डा. प्रकाश झाक सम्पादनमे ‘धूर्त्तसमागम’क विविध पक्षक चर्चा कएल पुस्तक सेहो प्रकाशन भेल अछि।

काठमाण्डू उपत्यकामे पछिला समय नाटकक दर्शक तँ भेटैछ, मुदा दर्शकदीर्घामे मैथिलीभाषी दर्शकक संख्या नगन्य रहैत अछि। एहनमे काठमाण्डूक दर्शकसभक बीच मैथिली भाषामे उएह सात सय वर्ष पुरान नाटक मञ्चन करबाक सोच एकटा दुस्साहसे छल। मुदा, मैलोरङ्गक निर्देशक डा. प्रकाश झा आ कलाकारसभ ओ जोखिम लेलन्हि। एकर प्रदर्शनक हिस्सा बनबाक अवसर हमरो भेटल रहए। संस्कृतनिष्ठ मैथिली भाषाक प्रयोग भेल रहितो नेपालीभाषी दर्शकक बहुलता रहल प्रेक्षालय निरन्तर हँसीक फुहारा आ थपडीक गड़गड़ाहटिसँ गुञ्जायमान रहल।

प्रत्येक संवाद आ आङ्गिक अभिनय पश्चात दर्शकक रोमाञ्च आ प्रतिक्रिया प्रेक्षालयमे छिटाइत देखल जाइत छल। अइसँ ई बुझबामे अबैत छल जे हरेक दर्शक नाटकक भरपूर रसास्वादन ल रहल छथि। ‘धूर्त्तसमागम’ अहुना क अपन रचनात्मक वैशिष्ट्य आ कालजयिता प्रमाणित कएने छल। अइ कार्यक लेल नेपाल सङ्गीत तथा नाट्य प्रज्ञा-प्रतिष्ठान तत्कालीन अवस्थामे ज्योतिरीश्वर रङ्ग उत्सवक रूपमे एकटा सार्थक आ उल्लेखनीय काज कएने छल।

तिरहुत/मिथिलाक चौदहम(१४) शताब्दीक सामाजिक इतिहासक दृष्टिएँ सेहो अइ नाट्यकृतिक विशेष महत्त्व रहल अछि। मिथिलामे तत्कालीन विद्यमान जाति व्यवस्था, खाद्यपदार्थ, आचार-व्यवहार तथा नियम-कानूनक बहुत रास पक्ष अइमे प्रकट भेल अछि। अइ नाटकक सभसँ महत्त्वपूर्ण पक्ष अछि एकर विषयवस्तु।

समाजक यथार्थ चित्र प्रस्तुत करब आ समाजकेँ सेहो नाटकक आधारभूमि बना लेब मैथिली नाटकक जन्मसङ्गे जुडिक आएल सकारात्मक पक्ष अइ नाटकमे सेहो देखल जाइछ। ज्योतिरीश्वरक भाषा-शैलीमे जाहि प्रकारक विशिष्ट स्वरूप आ परिपक्वता भेटैछ, ओहि आधारपर ओ तत्कालीन समयक प्रथम मैथिली साहित्यकार वा ओ मात्रे एकटा साहित्यकार रहथि से कहब उचित नइँ बुझाइछ। तेँ, ‘धूर्त्तसमागम’केँ मैथिली साहित्यक पहिल नाट्यकृति मानल जाइतो, मैथिली नाटकक इतिहास आओर बेसी दूरधरि अवश्ये जा सकैछ।

मूल लेख “७०० वर्ष पाको मैथिली नाट्यकृति“के मैथिली अनुवाद

अनुवाद: कैलाश ठाकुर

धीरेन्द्र प्रेमर्षि

धीरेन्द्र प्रेमर्षि (English: Dhirendra Premarshi) मैथिलीक बहुआमिक प्रतिभा भेल व्यक्तित्व। लेखक, गीतकार, गायक , रेडियो कर्मी हेलाै मिथिलाक संचालक। संगीत तथा नाट्य प्रज्ञा प्रतिष्ठान नेपालक प्राज्ञ ।

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