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हास्य–व्यंग्यमे माछ – परमेश्वर कापड़ि

मैथिली लोकगीत अक्षय आनन्दक उमटाम महासागरे अछि । आ ताहूमे हास्य–व्यंग्य, चौल–मजाक, गारि डहकन आदिस’ ई साहित्य भरल पड़ल अछि । सबसँ सब अपनासबमे ‘गारि–जोगर’ रिश्ता होइछ, ईहो अक्षय आनन्दक महासागरे अछि । अपनासबमे शुभमांगलिक वा वैवाहिक अवसरपर, सासुर, समधियौनके सङे सोहर बटगबनि वा फगुआदिमे लोके गारिसँ तरक’, हेलि उड़ेहि दैछ ।

हास्य–आनन्द रस–वर्षनके लेल एतए हम माछक ई दूटा बारहमासा परसि रहल छी—

१. बारहमासा

मास हे सखि सरस अगहन भूजल चूड़ाक संग यौ ।
तरल चेचड़ा माछ मुरमुर लागय मोन भरि भंग यो ।
पूस हे सखि अन्न नवका संग माङुर झोर यो ।
कबइ कुरमुर दाँत दबइत करय जन जन शोर यो ।
माघ बदरी जाड़ थर–थर काँपय तन बड़ जोर यो ।
सुख बोआरी खंड लखि कय मनविनोद विभोर यो ।
बढ़ल स्वाद माछ टेंगड़ा रान्हल सानल भात यो ।
चैत हे सखि रोग सभदिन रुप नाना देखि यो ।
तरल भुन्ना पलइ राखल खाइत बड़ सुख लेखि यो ।
मास हे सखि आय पहुंचल गरम बड़ बइसाख यो ।
गेल मन रुचि माछ गागर खंड सब दिन चाख यो ।
जेठ हे सखि हेठ बरखा मुण्ड भाकुर पात यो ।
पड़तु बिसरतु आबि ससरतु करु नवका भात यो ।
मेघ सखि बरसय अषाढ़क जत रसालक डारि यो ।
तोडि़ काँचे आम – आमिल देल सौरा पाल यो ।
मास हे सखि आओल साओन भरल अण्डा घेंट यो ।
तरल दरही माछ मारा खाथि भरि – भरि पेट यो ।
भादव इचना भेटल कहुना खाय भरलहु कोठि यो ।
मास आसिन देव पूजा शंख घंटा नाद यो ।
रान्हि रहुआ माछ बइसब पूर्ण भेल परसाद यो ।
मास कातिक बारि मड़ुआ बऽड़ तरल अपूर्व यो ।
पूरल माछ बारहमास हरिनाथ गाओल सगर्व यो ।

२. बारहमासा

मास हे सखि सरस अगहन, भूजल चूड़ाक संग यो ।
तड़ल चेचरा पलै रान्हल झोरस’ बहल तेल यो ।
पूस हे सखि अन्न नबका, रान्हल माङुर माछ यो ।
दुइ मिलि हम पलै रान्हल, आब ने बाँचत प्राण यो ।
माघ हे सखि जाड़ भारी, रान्हल माङुर माछ यो ।
दुइ मिलि हम पलै रान्हल, आब ने बाँचत प्राण यो ।
फागुन हे आबि पहुँचल, आयल पछबाक ओर यो ।
सेदैत मारा आगि लागल आब नहि बाँचत कौल यो ।
चैत हे सखि रोग चहु दिससँ, रुप नाना धराय यौ ।
तरै भुटनी सोन्ह रान्हल, वैद करथि दवाइ यो ।
मास हे सखि आबि पहुँचल, आयल मास बैसाख यो ।
गेल रुचि ओ प्रेम माछसँ आब नहि किछु चाही यो ।
जेठ हे सखि आबि पहुँचल रान्हल भाकुर माछ यो ।
दुइ मिलि हम पलै रान्हल आब नहि बाँचत प्राण यो ।
मास हे सखि आबि पहुँचल आयल नवल अखाढ़ यो ।
आम दय–दय सौर रान्हल झोर भेल बड़ गाढ़ यो ।
सावन हे सखि सर्व सुहावन रान्हल टेंगरा माछ यो ।
दुइ मिलि हम पलै रान्हल आब नहि बाँचत प्राण यो ।
भादव हे सखि झिंगा रान्हल संग कोतरी माछ यो ।
आसिन हे सखि आबि पहुंचल गरै गैंचा माछ यो ।
कातिक हे सखि आबि पहुँचल गरै गैंचा माछ यो ।
गेल रुचि ओ प्रेम माछ सँ आब नहि किछु चाही यो ।
—०—
(साभारः— डा.ललिता झा, ‘मैथिलीक भोजन सम्बन्धी शब्दावली’ सँ)

परमेश्वर कापड़ि

प्रमेश्वर कापड़ि, मैथिलीक लोक शैली तथा जनभाषामे लिखबाक लेल प्रख्यात साहित्यकार तथा लेखक छथि। हिनक दर्जनसँ उपर कृतिसभ प्रकाशित अछि। आइ लभ मिथिलाक अतिथि लेखक।