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— गजल
जीबऽ लेल अपनहि सीनामे श्वास चाही
अप्पन गीत गबै छी, तेँ निज भास चाही
शब्दक उन्नत बीजकेँ जनमऽ पलऽ बढ़ऽ
साजक धरती ‘सङ्गीत’ क आकाश चाही
रक्तक सङ्ग बहि लयकारी मन बिहुँसाबए
तामझाम नइ, तै लेल सुरक मिठास चाही
ई अनुष्ठान थिक ‘योग’ भाव ओ कला दुनुक
से फलीभूत हो, तेहन स्वर-विन्यास चाही
अलर-बलर आ फूसि-फटक्का भेल बहुत
सुच्चा-शाश्वत बनए तेहन इतिहास चाही
मैथिलीक लेल झलकी नूआ, गहना की !
माए छी, एकरा अन्तर्मनक उजास चाही
जयतसँ लऽकऽ लोचन आ कि माङनिधरि
जोतलनि, उपजौलनि से उर्वर चास चाही
झाड़ बनल झङ्खार तेँ एकरा कमबऽ लेल
थोड़ेक जूति आ मेहनति बहुते रास चाही
औ ‘सुनील’ ! किछु निस्सन डेगेँ आओर चली
शब्द-सुरहिसन ‘प्रेमर्षि’ क सङ्ग खास चाही
● गजलकार : धीरेन्द्र प्रेमर्षि
( आइ २१ जुन २०२३, विश्व सङ्गीत दिवस आ विश्व योग दिवसक हार्दिक शुभकामना सहित प्रकाशित )