
#जयंती_विशेष
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हरिमोहन झा नहि छथि, मुदा…
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लेखक: विभूति आनन्द
मैथिली साहित्य सँ जँ महाकवि विद्यापति ठाकुर आ हरिमोहन झाक नामकें विलोपितक’ देल जाय तँ मैथिली साहित्यक व्याप्ति बहुत छुछुन लागत। उक्त दुनू, पद्य आ गद्य साहित्यक शिखर पुरुष थिकाह।
हरिमोहन झा ओना तँ पद्य सेहो लिखलनि मुदा जतेक ख्याति गद्य-लेखन सँ भेटलनि, ओतेक पद्य सँ नहि। ई गद्य अर्थात कथा साहित्यक प्रथम पुरुष छथि। एही ठाम सँ कथा साहित्य, फराक सँ रेखांकित होइत अछि, आ ‘प्रणम्य देवता’ तकर आधार बनैत अछि। ई कथा संग्रह वस्तुतः पहिल एहन संग्रह छै जे व्यवस्थित रूपमे अयलैक। ओना तँ प्रबोध नारायण चौधरी जीक ‘बीछल फूल’कें पहिल कथा संग्रहक रूपमे चर्च होइत छै, मुदा ओ क्षीणकाय आ कथ्योक स्तरपर ‘प्रणम्य देवता’ धरि नहि पहुँचि पबैत छै।
वस्तुतः हरिमोहन झा युगपुरुष रहथि। तैं एकरा एना रेखांकित कएल जा सकैछ जे मैथिली साहित्यक आधुनिक कालक इतिहासमे चंदा झाक युगक बादमे हरिमोहन झाक युग अबैत अछि।(1)
हरिमोहन झा अपना जीबितहिमे एक किंवदंती बनि गेल छलाह। अर्थात अपना समाज मे जखन प्रत्युत्पन्नमतिक बात चलैत अछि तँ बीरबलकें सहजहिं मोन पाड़िक’ लोक एकटा नब कथा गढ़ि लैत अछि। धूर्तताक प्रसंगमे गोनू झाकें किन्नहुँ नहि छोड़ैत अछि। कोनो अवसरपर जखन युवती लोकनि मैथिली गीत गबैत छथि, तँ भनिता रूपमे विद्यापतिक नाम जोड़िये दैत छथि। एहिना प्रो. हरिमोहन झाक संग सेहो भ’ रहल छनि। एकर बानगी रूपमे निम्नांकित घटनाकें लेल जा सकैत अछि–
हमर गाममे सदानंद नामक एक व्यक्ति छथि। लोक हुनका साधू कहैत छनि। अवस्था करीब चालीस-पैंतालीस वर्षक होयतनि। जीवनक एतेक दूरी तय कयलाक बादो ने ‘अ’ अक्षर लीखि सकलाह आ ने पढ़ि सकलाह। एक दिन हुनका ओहि ठाम क्यो दूध लेल पहुँचल। ओ दूध ओकरा नहि देलथिन। एहिपर हम हुनका सँ पुछलियनि– दूध किएक नइ देलिऐ ?
– किएक नइ देलिऐ, से नइ बुझलियै ?
– नइ।
– ई दूध ल’ जायत आ दाम लेल छौ मास धरि झुलबैत रहत।
– से बात ?
– हँ। पुनः आगू बजलाह– कहलखिन हरिमोहन झा जे दूध खयबाक लेल मुँह चाही !
– के हरिमोहन झा ?
– आहि रे बा ! हरिमोहन झाक नाम नइ अछि बूझल ?
– नइ !
– अरे ओ अपने मैथिल ब्राह्मण छलाह ! एकटा पैघ उचितवक्ता !
आ हम मोने-मोन कहि उठलहुँ– बाह रे जादूगर !(2)
आ जकर मूल कारण भेल हुनक चमत्कारी लेखन ! हुनका अंदर समाजक प्रति जे सद्भाव छल, आ तकर सुधारक लेल ओ जे माध्यम चुनलनि ओ छल हास्य-व्यंग्य। ओना ताहू चुनावक पाछू कारण रहल छल होयत। मिथिलाक लोक सदा सँ गप्पी भेल करैत छल। आन-आन भाषी क्षेत्रमे तें एहन धारणा बनि गेल छलै जे मिथिलाक लोक कतबो गरीब होअय, मुदा दू-चारि बिगहा गप्पक खेती करबे करय !
आ ताहि लेल हरिमोहन झाकें अधिक दिक्कत सेहो नहि भेलनि। भनहि ओ वैशाली जिलाक रहल होथि, मूल आ सम्बंध अधिकांश दरभंगा-दरभंगा सएह रहनि। कहल जाइत छै जे हुनका अपन मातृक नदौरमे एक एहन व्यक्ति सँ भेंट भेलनि, जनिक नाम रहनि खट्टर झा। ओ चरित्र हुनका अंदरकें ततेक ने प्रभावित कयलथिन, जकर चरमोत्कर्ष भेल हुनकर व्यंग्य रचना ‘खट्टर ककाक तरंग'(3)।
ओना तकर आरंभ ‘कन्यादाने’ (4) मे आरंभ भ’ चुकल रहनि, आ जाहिमे ओ वैवाहिक समस्याकें आधार ल’क’ स्त्री-शिक्षाक अधोगतिपर हास्यक माध्यमे व्यंग्य करब आरंभक’ देने रहथि। ओना ई दीगर विषय जे हुनक हास्यक मात्रा ततेक अधिक प्रबल भेलनि जे व्यंग्य दबि जकाँ गेलनि। मुदा ओ तैयो अपन मिशनमे सफल रहलाह, आ कन्यादानक मूल स्वर बहरायल– बुच्चीदाइ चुप !
इएह मूल स्वर भ’ क’ उभरय, से हरिमोहन झाक काम्य रहलनि। आ जकर प्रमाणमे ‘कन्यादान’क दस वर्षक बाद ‘द्विरागमन'(5) आयल। ओना ई सत्य जे लोकप्रियतामे ‘द्विरागमन’, ‘कन्यादान’क निकट सेहो नहि पहुँचि सकल।
मुदा हरिमोहन झा फेर उपन्यास नहि लिखलनि। ओ धाराप्रवाह गल्प / गप्प / कथा लिखैत रहलाह आ प्रसिद्धिक शिखर छुबैत गेलाह। तें एखनहुँ साहित्य-विमर्शी सभ मानैत छथि जे एहि क्षेत्रमे फेर दोसर क्यो लेखक नहि आबि सकलाह। आइयो तें मैथिली साहित्य आ हरिमोहन झा एक-दोसरक पर्याय मानल जाइत छथि।
हुनक प्रसिद्धिक एक प्रमाण ईहो जे हुनक पोथी भार-दोरमे साँठल जाइत छल ! आ जे अ-मैथिलीभाषी रहथि, ओ मैथिलीभाषी सँ हुनक रचना सभ पढ़बाक’ साहित्यक रस ग्रहण करथि ! हुनक ओ लोकप्रियता एखनो अक्षुण्ण अछि…
मुदा एहि आलेखक उद्देश्य से नहि अछि। असलमे लेखन दू प्रकारक होइत अछि– सोद्देश्य आ दोसर स्वान्तःसुखाय। हरिमोहन झाक प्रत्येक रचनामे एक टा सुचिंतित उद्देश्य निहित रहैत छल। ताहू मे स्त्रीक अशिक्षा प्रमुखता सँ स्थान पबैत छल।
एहि प्रसंगक विमर्शक आरंभ ‘ग्रेजुएट पुतोहु'(6) कथाकें ल’ क’ कएल जा सकैछ। अर्थात् अपढ़ समाजमे एक शिक्षिता, पुतोहु भ’ क’ अबैत छथि। मुदा हुनक व्यवहार देखि घर सँ ल’ क’ बाहर धरि पुरजोर विरोध होइत छनि। ओना तँ कथाकार उक्त चरित्रकें साँप कटबाक’ मरबा दैत छथिन आ जाहिपर कतिपय अलिखित विरोध सेहो होइत छै। मुदा पाठक एहि विषयपर अलगट्टे गौर नहिक’ पबैत छथि जे ग्रेजुएट पुतोहु अपन ननदि सुमित्राकें संगीत-शिक्षा देब आरंभक’ देने रहैत छथि !
असलमे मूल संदेश एतहि भेटैत अछि, आ जे कदाचित कथाकारक मोनमे अपढ़ बुच्चीदाइ रहल होथिन, से संभव ! आ ताहू सँ अलग एक दोसर संदेश पंडिताइन द्वारा पंडित जीकें कहैत निम्नलिखित संवाद सँ भेटैत अछि– ऐ की करबैक ? जे होइ छैक से होमय दियौक ! अहाँ खाउ। थोड़े और दही लिय’ (7) ! ई संवाद असलमे बदलैत समयक संकेत छै, जकर डोरी कथाकार स्त्रीक हाथमे दैत छथि !
तहिना एक कथा अछि ‘मर्यादाक भंग'(8)। एहिमे कथा नायिकाकें मारल नहि जाइत अछि, अपितु एहिमे शिक्षिता होयबाक सुफल देखाओल जाइत अछि। आ जे घरमे कोनो पुरुषक नहि रहने ओ अपन परिवारक मर्यादाकें आगू बढ़ि बचबैत छथि ! आ तें पाहुनकें कहय पड़ैत छनि जे– हमरा त एहि घर मे सभ सँ बेसी सम्मत वैह बूझि पड़ैत छथि। बूझि पड़ल जेना हमर अपने कन्या होथि। यैह चाही। आइ हमरो आँखि फुजि गेल। यदि प्रत्येक घर मे एहने तेजस्विनी बेटी-पुतोहु बहराथि त फेर मिथिला कें शिथिला के कहि सकैत अछि !(9)
ओना तँ हरिमोहन झाक अनेक कथा अछि जाहिमे हुनक प्रगतिशील चेतनाकें स्पर्शल जा सकैत अछि। मुदा एहि संदर्भमे हम खासक’ हुनक एक टा कथाक उल्लेख करब आवश्यक बुझैत छी, आ जे ‘ग्रेजुएट पुतोहु’ आ ‘मर्यादाक भंग’क अगिला कड़ी रूप मे समक्ष अबैत अछि। ओ कथा अछि ‘ग्रामसेविका’ (10)।
ई कथा वस्तुतः नवयुगक प्रभातक आलोक देखबैत अछि। ओ कहैत छथि जे ग्रामसेविका आओत, आयब जायज छै, अयबाक चाही। सूर्योदय कें नहि रोकल जा सकैत अछि (11)।
हरिमोहन झाक शिक्षाक अनिवार्यतापरक दृष्टिक अतिरिक्त सेहो अनेक कथा अछि, अथवा कही जे सभ कथा, जे लगभग साठिक संख्यामे अछि, किछु-ने-किछु समाज-सुधार सँ संबंधित अछिये। आ से कतहु मुखर तँ कतहु संकेत द्वारा। अछैत विविध कथानक सभक, तकर मूल उत्स भेटैत अछि स्त्रीक अंदर पसरल अशिक्षामे।
एखन धरि हमरा सभ हरिमोहन झाकें हास्य-व्यंग्य सम्राट कहि-कहि मुदा लिखित रूपमे साहित्य-विमर्शक परिधिमे नहि आनि सकलहुँ, जतेक ओ ‘डिजर्व’ करैत रहलाह अछि। साहित्य अकादेमी हुनकापर मोनोग्राफ लिखबौलक तँ से अंग्रेजीमे ! आब ई मैथिली आलोचनाक दारिद्र्य थिक अथवा आलोचक सभहक अनुदारता, कहब मुश्किल अछि। एकरा विश्लेषित करबाक बेगरता अछि (12)।
ओना सत्य ईहो अछि जे मैथिलीमे हरिमोहन झापर समग्र चिंतन एही पंक्ति-लेखक द्वारा कएल गेल अछि ! तहिना एहि सँ पूर्व हुनकापर केंद्रित जे अभिनंदन ग्रंथ आयल, ताहूमे एहि पंक्ति- लेखकक नेपथ्य कथाकें स्पर्श कएल जा सकैत अछि…
ओना ई सभ ओतेक महत्वपूर्ण नहि अछि, जतेक महत्वपूर्ण हुनक लेखन पर विमर्श अछि। ओना जे कमोबेश भेलो अछि, से गंभीरताक संग भेल अछि। एहि संदर्भमे ‘हरिमोहन झाक रचना संसार’ नामक संपादित पुस्तक स्मरणीय अछि। संपादक छथि रघुवीर मोची आ प्रकाशक मैथिली अकादमी, पटना।
ओना लीख सँ हटिक’ हरिमोहन झाक किछु कथा, जेना ‘कन्याक जीवन’, ‘पाँच पत्र’ आदिकें सेहो अबडेरल नहि जा सकैत अछि। से हम ई विषय कोनो पहिल बेर नहि लीखि रहल छी, अनेक विद्वान उल्लेख कए चुकल छथि जे ‘पाँच पत्र’ उपन्यास थिक !
वस्तुतः ‘पाँच पत्र’क कथा-वस्तु प्रो। झाक कथा-संसार मे एक नव क्षितिज कें जोड़ैत अछि ! एकर कथा-वस्तु तँ पारंपरिक आ बहुत कम लगैत अछि। मुदा कहबाक ढंग विरल अछि। ओ मात्र पाँच टा छोट-छोट पत्रक माध्यम सँ एक गोट मध्यवर्गीय मैथिल दम्पत्तिक बीच कालक्रमे बदलैत पतिक बदलैत मन:स्थितिक संग बूनल गेल अछि। एहि कथा मे तीव्र यथार्थ-बोध छैक, सत्यक करुण स्वीकार छैक आ एहि सभकें बन्हैत एकटा आत्मीय संगीत छैक(13)…
मैथिल समाजमे नारी-जातिक प्रति विवाहक प्रसंग कतेक अनुदारता ओ अगंभीरता रहल अछि, ओकर जीवनक प्रति कतेक अन्याय कएल जाइत रहलैक अछि, तकर उदाहरण लेल कथाकारक ‘कन्याक जीवन’कें अवलोकन कएल जा सकैत अछि। एहि कथाक नायिका तित्तिर सँ भेलि परिहारपुर वालीक करुणास्नात शब्द अवलोकनीय अछि– हे औ पाहुन ! अहाँ अपना सँ हमर कियैक मिलान करैत छी ? अहाँ पुरुष छी आ हमरा लोकनि जखने कन्या भ’ क’ जन्म लैत छी, तखने सभ किछु अवधारि लैत छी। ओहि समय नेना मे ज्ञान नहि रहय, तें अहाँ सँ बराबरी करैत रही, हमरा सँ जे अपराध भेल हो से बिसरि जायब– कोनो एक परिहारपुर वालीक कथा नहि थिक, अपितु मिथिलाक गाम-गाम मे स्थितिक चक्का तर पिसाइत नारीक करुण-गाथा थिक(14)।
अभिप्राय ई जे हुनकर कोनो कथाकें पढ़ू, ओ अपन अभिप्रेत सँ चुकैत नहि छथि। आ से ओ ‘रेलक झगड़ा’ हो, ‘रेलक अनुभव’ हो, आकि ‘प्रणम्य देवता’क एगारह आ ‘रंगशाला’क पन्द्रहो कथा, हुनक कथाकार-रूप कें क्रमशः पुष्ट करैत भेटैत अछि।
पिछड़ल मिथिला समाजक कारणमे ओ अशिक्षा आ बंद सोचकें मूल कारण मानैत छथि। तें मिथिला-समाजक तत्कालीन स्थिति-दु:स्थितिक शल्य-क्रिया करैत, कोना स्वस्थ होयत, तकरो अपन खास लेखन-शैली संग संकेत देब नहि छोड़ैत छथि…
तें हरिमोहन झा अपन परम्पराक नकार नहि करैत छथि, ओकर अनुचित तत्वक वहिष्कार करैत छथि। हुनक कहब छनि जे हमर ई ‘तिरहुताम’, जे प्राणपर बनि अबैत अछि, कार्यक्रम भंगठा दैत अछि, हमरा नहि चाही। ई दीर्घसूत्रता, दीर्घसूत्रताक ई मर्यादा हमरा नहि चाही(15)…
मुदा जखन हरिमोहन झाक समय, समाज आ समाज अध्ययनपर विमर्श करैत छी, तँ कार्तिक नाथ मिश्र जीक एक आलेखपर नजरि चल जाइत अछि। मिश्र जी लिखैत छथि जे ओ शरत बाबूकें अपन प्रेरक मानैत रहथि। परंच ओ एहि बातपर ध्यान नहि देलनि जे बंगाल आ मिथिलाक सामाजिक समस्या प्रायः एक्के प्रकारक रहितहुँ बंगाल आ मिथिलाक लोकक चिंतन-प्रक्रियामे आसमान-जमीनक फर्क छै. ओहिठाम मात्र पीसी सरकार जादूगर नहि भेल छथि ! सदा सँ अभावग्रस्त क्षेत्र रहितहुँ, बंकिम बाबू ‘सुजलां सुफलां मलयज शीतलां’ सम्पन्न बंगालमे ‘सप्तकोटि कंठ कलकल निनाद’ करैत देखलनि आ ‘त्रिंस कोटि’ भारतवासी एकरा राष्ट्रगान बना लेलक। तहिना ‘भुक्खा बंगाल’कें रवि बाबू ‘सोनार बाँग्ला’ बना देलनि। शरद् बाबू कलकत्ता स्थित बाल-विधवा-सेवित स्टूडेंट लॉजमे एक-सँ-एक चरित्रवान विद्यार्थी एवं चरित्रवती संगरक्षिता सबकें देखलनि आ ढेरक-ढेर उपन्यास लिखलनि।
हरिमोहन बाबू लेल मिथिला लेल एहन इंद्रजाल ठाढ़ करब संभव नहि छलनि. मिथिलाक ‘पल्ली समाज’कें ओ अपन कार्यक्षेत्र बनौलनि अवश्य, परंच हास्यक सृजनक क्रममे हुनक पल्लीक लोक सभ सहानुभूतिक पात्र नहि बनि, मात्र ‘मजाक’क पात्र बनिक’ रहि गेल (16)।
अछैत एहि सभक हरिमोहन झा दर्शनशास्त्रक मान्य प्राध्यापक रहल छथि। हुनका न्याय, सांख्य, योग, वैशेषिक, उपनिषद, वेदांत, शंकराचार्य आ निम्बार्क जैन आ बौद्ध धर्म सभ पढ़ल-गुनल छलनि। ओ हेगेल आ कान्ट पढ़ने रहथि, राधाकृष्णन आ रसेल कें जनने रहथि। गांधी आ रवीन्द्र-दर्शन सेहो हुनका भींगल रहनि।
ओना क्यो कहने छथि जे दर्शन आ साहित्यक संगम एक व्यक्ति मे होयब खतरनाक होइत छै। मुदा तकर अपवादो होइत छै, आ से अपवाद बड़ विशेष होइत छै। आ वएह अपवाद ककरो हरिमोहन झा सन युगांतरकारी रचनाकार बना दैत छै !(17)
से हरिमोहन झा आइ नहि छथि। हुनकर कृति अछि। हमरालोकनि हुनका गोर्की आकि प्रेमचंद आकि शरदचंद्रक साहित्यक विराटतामे कतहु ‘फिट’ अथवा समतूल नहि पबैत छी– आजुक समयमे ई सोचब जँ थोड़ेक कालक लेल सहियो लागि सकैत अछि, मुदा तत्कालीन परिवेश आ मानसिकता मैथिल लेल जेहन छल, ताहिपर दृष्टिपात करी तँ एहि तरहक चिंतनक आवश्यकता कतेक सही, से स्पष्ट भ’ जाइत अछि।
अस्तु कहल जा सकैत अछि जे हरिमोहन झा समाजक कथा, ओकर अंतरमे बड़कैत आ टहकैत व्यथा-कथा तथा ओ समाजक गर्भ सँ बहराइत उदयक कथा, एवं समाजक भीतर-बाहर मेटाइत ओ लिखाइत नवउत्थानक कथा कहि, जे आ जेहन धारकें पिजौलनि, आ ओहि पर ‘सान’ चढ़ौलनि, तकरा सहजहिं नकारल नहि जा सकैत अछि। ●
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#संदर्भ_संकेत :
1. डा. जयकांत मिश्र, माटिपानि, संपादक : उदयचन्द्र झा विनोद/विभूति आनन्द, पृष्ठ- 6, वर्ष जून 1984
2. वएह, पृष्ठ-9
3. खट्टर ककाक तरंग, प्रो. हरिमोहन झा, प्रकाशक : भारती भवन, पटना/दरभंगा, नवीन संस्करण- 1989
4. कन्यादान-1933, नवीनतम संस्करण-1982, जनसीदन प्रकाशन, कुमर बाजितपुर, वैशाली
5. द्विरागमन, पुस्तक भंडार, पटना/दरभंगा, 1943
6. चर्चरी, द्वितीय संस्करण- 1995, जनसीदन प्रकाशन, कुमर बाजितपुर, वैशाली
7. वएह, पृष्ठ- 7
8. चर्चरी, द्वितीय संस्करण-1995, जनसीदन प्रकाशन
9. वएह, पृष्ठ-14
10. चर्चरी, जनसीदन प्रकाशन
11. हरिमोहन झाक रचना-कर्म, विभूति आनन्द, प्रकाशक- मैलोरंग, दिल्ली- 2016, पृष्ठ- 78
12. केदार कानन, वएह, पृष्ठ- 3
13. कुलानन्द मिश्र, प्रो. हरिमोहन झा अभिनंदन ग्रंथ- 1983, पृष्ठ- 187
14. वएह, रमानंद झा रमण, पृष्ठ- 193
15. हरिमोहन झाक रचना-कर्म, पृष्ठ- 78
16. प्रो. कार्तिक नाथ मिश्र, प्रो. हरिमोहन झा अभिनन्दन ग्रंथ, पृष्ठ- 240
17. हरिमोहन झाक रचना-कर्म, पृष्ठ- 79