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साहित्य ओ सभ्यता – उदित नारायण दास

श्री मैथिली'मे, अंक २, मार्च १९२५ ई. प्रकाशित लेख

हमरालोकनि ‘साहित्य’ शब्दक व्यवहार नाना प्रकारेँ करैत छी, जेना – संस्कृत साहित्य, अंगरेजी साहित्य, बंगला साहित्य, हिन्दी साहित्य, मराठी साहित्य, मध्यकालीन साहित्य, वैदिक साहित्य, बौद्धकालीन साहित्य इत्यादि । बहुतोक व्यक्तिकाँ साहित्य नामसँ विज्ञान, गणित आदि पुस्तकसँ भिन्न काव्य-कोष, अलंकार आदि ग्रन्थक शाब्दबोध होइत छै। कताैँ हमरालोकनि गणित सम्बन्धी साहित्य, वैज्ञानिक साहित्य आदि प्रकारक व्यवहार करैत छी। कहबाक अर्थ ई जे साहित्य नामसँ नाना प्रकारक भिन्न-भिन्न भाव हमरालोकनिकेँ होइत अछि। अत: साहित्य शब्दक मीमांसा नितान्त आवश्यक।

साहित्य शब्दक व्युतति ई अछि –

“सहितस्य भावः साहित्यम्।” ‘साहित्य’कअर्थ ‘मिलल, एकत्रित, युक्त, सम्बद्ध’ आदि-आदि भ’ सकैत अछि। अर्थात् ‘साहित्य’ शब्दक प्रतिशब्द हमरालोकनि ‘सामर्थ्य’ कहि सकैत छी। दश, पाँच शब्द अथवा पदक परस्पर संयोगक कारणेँ जे एक प्रकारक अर्थ द्योतित करबाक सामर्थ्य होइत छै ताही ‘शब्द-सामर्थ्य’केँ’ हमरालोकनि साहित्य कहि सकैत छी। अतः कोनो प्रकारक ग्रन्थ तथा कोनो प्रकारक प्रतिपाद्य विषय जे ‘शब्द-सामर्थ्य’द्वारा लिपिबद्ध हो ओकरा साहित्य नामसँ परिगणित क’ सकैत छी। काव्य, इतिहास, दर्शन, विज्ञान, आदि कोनो प्रकारक शब्द-सामर्थ्यसँ प्रतिपादित ग्रन्थ ‘साहित्य’ कहा सकैत अछि। अमुक देशक साहित्य उच्च कोटिक छै तथा अमुक देशक साधारण तथा नीच आदि प्रयोगक तात्पर्य हमरालोकनि इएह बुझैत छी जे उच्च साहित्यकेँ कठिनसँ कठिन, दुरूहसँ दुरूह, कोमलसँ कोमल, नाना प्रकारक भावकेँ प्रकाशित करबाक शब्द सामर्थ्य छै ओ नीच तथा साधारण साहित्यकेँ ततबा सामर्थ्य नइँ।

साहित्य सभ्यताक प्राणस्वरूप होइत छै। जे जाति जतेक सभ्य, ओकर साहित्य ओतेक उच्च, जकर सभ्यता जतेक नीच, तकर साहित्य ततेक नीच। सभ्यताक निर्माण कोना होइत छै अइ विषयपर विचार कएलासँ उत्तर ई ज्ञात भ’ सकैत अछि जे अइ हेतु साहित्य केहन अनिवार्य छै। कोनो जाति देश; पाँच किंवा एक-दू सय वर्ष मध्य सभ्यताक उच्चतम श्रेणीपर नइँ पहुँचैत अछि।

अपन बाप-पितामह आदि पूर्वजक अनुभवद्वारा प्राप्त ज्ञान तथा विकासकेँ पुनः-पुनः पुष्ट करैत जखन एक जाति निरन्तर विकामकेँ प्राप्त करैत अछि, तखन ओ सभ्यताक उच्च श्रेणी मध्य पहुँचैत अछि। मुदा ई बाप-पितामहक अर्जित अनुभव तथा विकासकेँ ओकर सन्तान जावत तक शब्दक सामर्थ्यसँ लिपिबद्ध नइँ क’ पाओत तावत प्रत्येक जातिकेँ सर्वदा बाल्यावस्थहि मध्य रह’ पड़तैक। हमरालोकनि जखन माना प्रकारक ज्ञानकेँ अपन पूर्वजक हाथसँ लिपिबद्ध कएल पढ़ैत छी, तखन हमरालोकनिकेँ उन्नतिक मार्गमे अग्रसर होएबामे अत्यन्त सहायता भेटैत अछि। यदि ‘शब्द-सामर्थ्य’ अर्थात् साहित्यक अभाव होइक त ई सहायता हमरालोकनिकेँ नइँ भेटि सकैत अछि। साँचे बजबाक चाही, सभखन धर्म्मेटा करब उचित छी, अधर्म कएने अधलाहेटा हो, अमुक समय मध्य सूर्यग्रहण ओ चन्द्रग्रहण हो, अमुक वस्तु पथ्य, अमुक अपथ्य, परद्रव्य तथा परस्त्रीहरण करब महापातक छी, इत्यादि नाना प्रकारक सिद्धान्त हमरालोकनिकेँ अपन कल्याणक हेतु पूर्वजलोकनिक चिरकालिक अनुभवद्वारा नइँ होइत यदि साहित्यक सहायता नइँ रहैत।

उदाहरणक हेतु हमरालोकनि संस्कृत-साहित्य ओ भारतीय सभ्यताकेँ ली। राम, कृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन, हरिश्चन्द्र, शिव, सीता, सावित्री, इत्यादि देव-देवीलोकनिक जे किछु आदर्श हमरालोकनिकेँ प्राप्त होइत अछि, तकर कारण संस्कृत साहित्ये धिक। एहू समय मध्य भारतीय सभ्यताक जे दुढ़ता देखि रहल छी, तकरो हेतु संस्कृत साहित्यहिक दृढ़ता अछि। अनेकानेक अक्रमण, आघात तथा परिवर्तन भेलापर भारतीय सभ्यताक आधार एखनो जे सुदृढ़ देखि रहलहुँ अछि, तकर श्रेय संस्कृत साहित्यक निर्माता हमरा देशक ऋषि मुनिहिकाँ छनि। मानवीय जीवनक उद्देश्य कतेक दूर धरि उच्च भ’ सकै छै, मनुष्य उन्नति करैत-करैत अपन वासस्थल भू-मण्डलकेँ स्वर्गक प्रतिबिम्ब कोना बना सकैत अछि आदि शिक्षाक जन्मदाता हमरालोकनिक संस्कृत साहित्ये अछि।

यदि वर्त्तमान अंगरेजी साहित्यक दिसि ध्यान दी ओ एकर प्रभाव अंगरेजी सभ्यताक किंवा पाश्चात्य सभ्यताक ऊपर कोन रूपेँ पड़लैक अछि, अइ विषय पर विचार करौ तँ साहित्य तथा सभ्यताक सम्बन्ध अत्यन्त सुलभ रीतिएँ भ’ सकैत अछि। ई कहबी छै जे आधुनिक समय मध्य अंगरेजी भाषा राज्य क’ रहल अछि, अंगरेज जाति नइँ। (It is the English language that is ruling, not the English Nation.) जे व्यक्ति जंगरेजी विद्यासँ सम्बन्ध रखैत छथि ओ अइ भाषाक वीररसोत्पादक काव्यसँ परिचित छथि तथा एकर अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, रसायनशास्त्र, युद्धविद्या इत्यादि नाना पकारक ग्रन्थसँ परिचित छथि, हुनकालोकनिकेँ पाश्चात्य सभ्यताक मूल कारण की छियै से स्वयं विदित भ’ सकैत छनि। बंग प्रान्तक जे किछु अभ्युदय देखि रहल अछि ओ क्रमिक देखैत जाइत छी तकरो कारण ओहि प्रान्तक साहित्यक पुष्टिए छियै। कहवाक सारांश ई जे साहित्य जे चाहय, समाजके जाहि रूपेँ संगठित करबाक इच्छा होइक, क’ सकैत अछि।

निर्वलसँ निर्बल मनुष्य समाजकेँ योद्धा बना सकैत अछि। पशुबत व्यवहार करैत जे समाज अछि तकरा उच्च कोटिक मानवीय जीवनक सेहो शिक्षा द’ सकैत अछि। निर्धनसँ निर्धन जातिके सम्पत्तिशाली बना सकैत अछि। स्वार्थीसँ स्वार्थी; क्रूरसँ क्रूर जातिके अत्यन्त उदार तथा कोमल देवताक सदृश क’ सकैत अछि। एकरे प्रतिकूल ‘नीच साहित्य’सँ उन्नतसँ उन्नत जाति नीचतम श्रेणी मध्य सेहो पतित भ’ सकैत अछि। साहित्य रास्ता देखबैत छै। साहित्य सभ्यताक बीजमंत्र अछि। सुष्टिकर्त्ता जे ब्रह्मा छथि जनिक अधिकारमे सभ्यता आदिक निर्माणक कार्य देल गेल छनि, तनिक जे शक्ति-सरस्वती छथिन सैह छी साहित्यक अधिष्ठावी देवता। अतः ब्राह्मी शक्तिसँ अधिष्ठित साहित्यहिकद्वारा समाज निर्माण, सभ्यता-निर्माण; सृष्टिक विकास आदि भ’ सकैत अछि।

अतः साहित्य तथा सभ्यताक एतेक घनिष्ठ सम्बन्धकेँ देखि हमरालोकनिकेँ ई अवश्य स्वीकार कर’ पड़त जे यदि सभ्यताक निर्माणक इच्छा हो तथा जातिक विकास करबाक कामना हो, तँ प्रथम साहित्यक पुष्टिक दिसि अवश्ये ध्यान देव आवश्यक अछि।

आब ई विचारणीय जे साहित्यक पुष्टि कोन रूपेँ भ’ सकैत अछि। साहित्यक पुष्टिक हेतु ई आवश्यक छै । जे नाना प्रकारक विषयक पुस्तकादिक निर्माण हो, उच्च कोटिक शिक्षा देनिहार पत्र-पत्रिकाक प्रचार हो, अन्य भाषाक उपादेय ग्रन्थ सबहिरु अनुवाद क’ अपना साहित्यक भण्डारक पूर्ति कएल जाय, अनुकरणीय विषयक अपना साहित्यक ग्रन्थमे समावेश हो, समाज मध्य जे किछु कुरीति हो, तकर वहिष्करण करबाक हेतु लोकप्रिय उपन्यासादिक रचना कएल जाए। जाहि क्रमसँ अपन चाहित्यक पुष्टि होइत जाएत, ताही क्रमसँ देशोक विकास होयत। यदि देशक धनमान तथा विद्वान दुहुलोकनिक सहयोगिता हो त ई कार्य अत्यन्त सुलभ रीतिएँ होइत छै अथवा भ’ सकैत छै। आशा अछि जे हमरा देश मध्य अइ दिसि जागृति होइत ।

[संकलन (निबन्ध संग्रह)सँ साभार ई लेख पहिल बेर ‘श्री मैथिली’मे, अंक २, मार्च १९२५ ई. प्रकाशित भेल छल।]
वर्णविन्या संशोधित: आइ लभ मिथिलाक भाषा सम्पादन अनुसार, किछ वर्णविन्यास मात्र संशोधन कएल गेल अछि।

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