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मैथिलीक अन्तर्विरोध : विश्लेषण आ संश्लेषण

ओना त मिथिलाक पारम्परिक समुदाय दैवीय दृष्टि स अखनो ब्राह्मणीय प्रभाव स मुक्त नइँ अइछ, तथापि विविध राजनीतिक परिवर्तन स श्रमजीवि जनसमुदाय अथवा लोकसमुदायमे अस्तित्व आ पहिचानक अधिकारसम्बन्धी चेतनाक विकास भेल अइछ।

भाषा, एकटा सामाजिक परिघटना अइछ। ई सामाजिक उत्पादनके विकासके क्रममे जन्म लैत अइछ। ई उत्पादन सम्बन्धके कुलयोगके आधारपर जीवनके सामान्य सामाजिक बौद्धिक राजनीतिक प्रक्रियामे माध्यमके रुपमे सतत विकास होइत रहैत अइछ। मार्क्स आ संगहि चिन्तनके स्तरपर सामाजिक श्रम प्रक्रियामे मानवीय संसर्गके आवश्यकतानुसार निरन्तर उन्नत स्तरपर विकसित होइत रहल एक दोसर स अन्तर्सम्बन्धित मानैत छैथ। एहे ओ बिन्दु अइछ, जतह वर्गसम्बन्ध आ विचाराधारात्मकताके छाप कोनो भाषामे भाषाई व्यवहारके प्रभावित करैत अइछ; आ वर्ग विभाजित समाजमे वर्ग उपभाषा (क्लास डाइलेक्ट) वा सामुदायिक भाषा [ हक्स्टर्स लिङ्गो (Hucksters lingo)] वा वर्ग बोली [ हक्स्टर्स जार्गन (Hucksters jargon)] सब जन्मैत अइछ।

मैथिली आदि भाषासबमे भाषा आ बोली, शुद्धता, ठेठी आदि देखल जारहल अन्तरविरोधी स्थिति सामाजिक विकासके क्रममे विकसित एहने जटिल विकासक्रमके परिणाम अइछ। एकरा उपेक्षा क‘क‘ सर्वस्वीकृत मैथिली मानकके निर्माण नइँ कयल जा सकैत अइछ। आउ, अइपर किछु विचार करी:

“….मैथिली भाषभाषी जौँ छिँकबो करैत अछि तँ अधिकाधिक मैथिली विद्वानकेँ ओ संस्कृतहिसँ बहराएल बुझाइत छैन्हि। अर्थात्, ध्वनि परिवर्तनक सर्वमान्य स्वरुप, सिद्धान्त ओ प्रक्रियाके सोझे सीकापर टाँगि महाअतिरंजित तथा अस्वाभाविक व्युत्पत्ति देखेबामे ओ अपन बुद्धिमत्ता बूझैत छथि। एतए एहिसँ बेसी कहब समीचीन नहि होयत ।…..”

(डा.रामावतार यादव÷मैथिली आलेख सञ्चयन —२०१६,पृष्ठ ११) डा. रामावतार यादव नेपाल आ भारत दुनुपारमे प्रशंसित आ सम्मानित अत्यन्त सामथ्र्यवान भाषाविद् छैथ। उप्पर उद्धृत पाँइतसब मैथिली भाषामे अतिशय संस्कृतनिष्ठ प्रभाव तथा मैथिलीभाषी समुदाय विशेषमे देखलगेल मोह, आ भाषाके अभिजात्यीकरण आ संस्कृताह दैवीकरणक प्रयत्नप्रति तिख्ख वैचारिक आक्रमण अइछ। अइ स बुझाइत अइछ जे डा.यादव भाषाके सहजीकरणके पक्षमे छैथ। मुदा डा.यादवके विचार आ लेख्य व्यवहार (उपरका उद्धरणमे सेहो) अन्तरविरोधी देखाइत अइछ। डा.यादव प्रभृत भाषाशास्त्री, विद्वान आ साहित्यकारसबके लेकखीय शिल्पगत प्रवृत्ति देखलापर बुझाइत अइछ जे मैथिलीके सर्वस्वीकृत बनयबाक बाटमे चुनौती दोब्बर अइछ — एकटा ओ सब जे एकर संस्कृताह आ अभिजात्यीय ( ब्राह्मणीय) स्वरुप कायम राख’ चाहैत अइछ; आ दोसर, जे लेखकीय विकास, वृत्ति आ प्रतिष्ठाके मोहवश मैथिलीक अभिजात्यीय शैली (रुप) स अलग नइँ होब‘ चाहैत अइछ।

ओना त मैथिलीमे शुद्ध आ अशुद्धक अन्तरविरोधी भाव अखन चुनावी राजनीति आ सामाजिक वर्चस्वक द्विपक्षीय हतियार बइन गेल अइछ। मुदा एहिमे दू मत नइँ, जे ई, शासकीय भेदभाव आ वृहत्तर सामुदायिक संस्कृतिके शासकीय वर्ग अनुकूल पारम्परिकरुप स संकीर्ण धार्मिकीकरणके परिणाम अइछ; जे वर्तमानमे शासकवर्गके सेहो समाजके विभाजित कर‘मे आ अपना अनुकूल प्रयोग कर‘ मे सहयोग क‘रहल अइछ।

तात्पर्य ई जे मैथिली भाषिक वैविध्यता पारम्परिकरुप स शासकवर्गके अभिजात्यीय (ब्राह्मणीय) अहं आ श्रमजीवी (ब्राह्मणेत्तर) दूटा विभेदीकृत समुदायमे विभाजित सामुदायिकीकरण स जन्मल अइछ। मुदा की ई सामुदायिक विभेद भाषा मात्र स सम्बन्धित अइछ ? नइँ, ई त तहिए जन्मल, जहिया निवर्गीय समाज शासक आ शासित समाजमे परिणत भेल। अर्थात् सत्ताके जन्मसंगे ई विभेदिकृत परम्परा जन्मल। प्रसिद्ध विद्वान राहुल सांकृत्यायनके कहब उद्धृत करब सान्दर्भिके होयत। ओ कहैछैथ:
“प्रारम्भिक समाज निवर्गीय छल। मुदा मानवीय प्रतिस्पर्धा आ द्वन्दसबमे प्राप्त सफलता–असफलता, विजय–पराजय स मानव समुदाय वर्गविभाजित भेल। ई मानवीय भाषा, आख्यान आ सांगीतिक सिर्जना आ अभिव्यक्तिके चरित्रमे विविधता उत्पन्न कयलक। देव आ पितरसब, सब दास आ मालिकमे विभक्त भ‘गेल। बादमे त स्वामीसब सेहो देवतामे परिणत होइतगेल, कियक त ओ सामथ्र्यवान छल। श्रमिकसब ‘लोक’ वा ‘जन’मे परिणत भेल। देव सबहक भाषा, साहित्य आ सृजना शिष्ट आ देवसिर्जित भेल। लोक वा जनके आख्यान आ गीत लोक आख्यान आ लोकगीत कहायल। करीब तीनहजार वर्ष पहिने जखन भाषा लीपीबद्ध होब’ लागल, लिपीके शिष्ट साहित्यके लेल मात्र उपयुक्त मानल गेल। मौखिक परम्परामे शिष्ट कहलजायबलाके मात्र लिपीबद्ध कयल गेल।” (राहुल सांकृत्यायन, राहुल निबन्धावली – १९९७, पृष्ठ ८४)

राहुल सांस्कृत्यायनक यी कथन सत्ताक जन्मक बाद समाजके अभिजात्य आ लोक वा जनमे विभाजन आ एकटा सर्वव्यापक अन्तरविरोधी दृष्टिकोण आ प्रवृत्तिके रुपमे निरन्तर विकसित होइतगेल प्रति ध्यान दियबैत अइछ। संगहि ई इहो कहैत अइछ जे अभिजात्यीयते दैवी अइछ आ एकरे स सम्बन्धित मात्र शुद्ध, योग्य आ आधिकारिक अइछ — संस्कृति, परम्परा, दैव आ भाषासब। ओहे लिपीबद्ध भेल जे अभिजात्य अर्थात् शासकीय परम्परा स जुड़ल छल। ओहे नियम आ व्याकरण छल जे अभिजात्यीय निर्मित छल। दोहराब‘ नइँ परय जे ई अभिजात्य बाह्मणीय छल आ लोक वा जन ब्राह्मणेत्तर। मैथिलीयो संगे एहे भेल। यद्यपि मैथिलीके यथार्थ ई अइछ जे एकटा भाषाके रुपमे एकर उत्पत्ति लोक वा जनक बीचमे भेल, तत्कालीन प्राकृत मागधी स विकसित अपभ्रंश वा अबहट्टक बीच स। बादमे जखन शासकवर्गक आवश्यकतानुकूल राजपण्डित आ राजकविसबके लोकभाषा (देशीभाषा)मे रचना करबाक इच्छा भेल त ओ सब अपन बौद्धिक स्वाभावानुसार एकरा संस्कृतनिष्ठ परिमार्जन कयलक।

लिपी स दूर लोक वा जनके भाषा सत्तापक्षीय ‘शिष्ट’ अभिजात्यवर्गसंगेके अन्तरविरोध स जूझैत आ अन्तरघुलित होइत समयसंगे परिवर्तित आ परिमार्जित होइत रहल। अइमे शासकीय उपेक्षा, तिरष्कार आ गवारुपनके हेयपन छल।
परिमार्जन त अभिजात्यीय मैथिलीके सेहो कमोबेस भेल, मुदा ओकर संस्कृताहपन, शासकीय प्रश्रय आ दैवीय प्रभावमे सदा शासक आ ओकर उच्चाधिकारीवर्गक बोली आ लेख्य ‘मानक’ रहल। लोकजन अनपढ़ आ सामथ्र्यवान शासकवर्ग ‘शिष्ट’ छल। तैँ लिपीबद्ध शिष्ट साहित्य त छले, एहि शिष्ट साहित्यक आधारपर व्याकरणो ओकरे छल। बादमे अही व्याकरणके देखाक‘ ओ अपन मैथिली भाषिकाके शुद्ध मैथिली आ बहुलांशके ठेठ, गवाँरु अथवा अशुद्ध कहलक। ई शुद्धताक प्रचार आ तानाबाना एतेक मजबूत आ प्रभावशाली छल जे बहुसंख्यक लोकजन अपन भाषिकाके अशुद्ध बुझि हीन आ अपने भाषाके परभाषा बूझैत रहल अइछ। अपने भाषा स ई उदासीनता अखनो जारिए अइछ। अही ग’हमे स गंगा स दछिनबारी कात आ बेसी स बेसी गंगाक उतरबारी किनार स सटल जनसमुदायक भाषा मगहीके आधार बना किछु तत्वसब अपन स्वार्थसिद्धिक हेतु भ्रम सृजना क‘ रहल अइछ। यद्यपि मैथिलीक पारम्परिक अन्तरविरोध देखलजाय त ई ब्राह्मणीय अथवा कथित शुद्ध आ ब्राह्मणेत्तर अर्थात ठेठीक बीच अइछ।

ओना त मिथिलाक पारम्परिक समुदाय दैवीय दृष्टि स अखनो ब्राह्मणीय प्रभाव स मुक्त नइँ अइछ, तथापि विविध राजनीतिक परिवर्तन स श्रमजीवि जनसमुदाय अथवा लोकसमुदायमे अस्तित्व आ पहिचानक अधिकारसम्बन्धी चेतनाक विकास भेल अइछ। तैँ आब ओकर आक्रोश तथ्यगत आ तार्किकरुप स सेहो अभिव्यक्त भ‘ रहल अइछ। आब बिशाल ब्राह्मणेत्तर लोकजन ई बुइझ रहल अइछ जे व्याकरण शुद्धताक प्रमाण नइँ, भाषाक वाचिक आ लेख्य व्यवहारके क्रमबद्धता आ अनुशासनात्मकताके विधि मात्र अइछ।

मैथिली भाषाक विकासक इतिहास कहैत अइछ जे मैथिलीमे आदिस्रष्टासब सरहपा लगायत सिद्धसन्तक भाषा ओ नइँ छल जे शासकवर्गीय राजपण्डित आ उच्चाधिकारीसबहक छल। ओ त आम जनसमुदायक बीच प्रचलित अपभ्रंश अथवा अवहट्ट छल जइ स मैथिलीक जनभाषा जन्मल आ जकरा राजविद्वानसब परिमार्जन क’क’ कथित शुद्ध वा आधुनिक भाषामे मानक भाषा गढ़लक। ई ओहिना छल जेना इसापूर्व पाँचम् – चारिम् शताब्दिमे प्रथम वैयाकारणिक पाणिनि आम आर्य जनसमुदायबीच प्रचलित छान्दस्के परिमार्जन क‘क‘ ‘भाषा’ कहलक, जे बादमे देवभाषा ‘संस्कृत’ कहलगेल। ईसाके आठम शताब्दिके सरहपा आदि सिद्ध सन्तसबके दोहासब मात्र नइँ, आदिकालीन मैथिलीक विकसितरुप जे चौदहम शताब्दिमे ज्योतिरिश्वरक वर्णरत्नाकरमे भेटैत अइछ, ओहूमे लोक प्रभाव स्पष्ट देखल जा सकैय। वर्णरत्नाकरमे कइसन, अइसन आ जइसन सन लोकभाषाके शब्दावलीसबहक प्रयोग जनसमुदायमे लोकभाषाके प्रभाव सिद्ध करैत अइछ।

मुदा भाषिक शुद्धता की अइछ ? डा. रामावतार यादव एकटा शब्दावलि प्रयोग करैछैथ —

“अनौचित्यप्रयुक्तवक्तृवैगुण्यभावनानुद्भावकत्वे” (डा. यादव, मैथिली लेख संचयन)। जइ शब्दके सुनलाक बाद ककरो अनौचित्यक भान वा कथन स भिन्न गुणक (वक्तृवैगुण्य) भावना नइँ हो से शब्द शुद्ध अइछ। वैय्याकारणिक आधारपर भाषिक शुद्धताक दावी अइ परिभाषाके विपरीत अइछ। जेना ‘अही ठियाँ टिकुली हेरा गेलै दैया गे’ के मानक मैथिलीके पक्षधर अशुद्ध कहि सकैत अइछ, मुदा ई भावबोधक दृष्टिएँ कोनो तरहेँ अशुद्ध नइँ अइ। अइ स ई स्पष्ट होइत अइछ जे कथित मानक मैथिलीक कसौटीपर अशुद्ध घोषित करबाक प्रयास बलधकेल आ अभिजात्यीय अहं मात्र अइछ। जहाँतक मैथिलीमे भाषिका वा बोलिक विविधताक प्रश्न अइछ, ओ वर्गीय वा सामुदायिक प्रभाव स जन्मल भाषाई व्यवहार मात्र अइछ। जदि भाषाशास्त्रीसबहक मानी त एकटा जीवन्त भाषामे भाषिक विविधता ओकर व्यापक जनसहभागिताक प्रमाण अइछ। आ एकराबीच नीच–उँचक व्यवहार वर्गश्रेणीगत अहं मात्र अइछ। अही दुआरे भाषाक मानक रुप निर्धारणक हेतु भाषाक अइ वैविध्य विशिष्टताके बूझैत सर्वस्वीकृत व्यापक दृष्टिकोण अपनयनाइ जरुरी अइछ। ई तखन और जरुरी भ‘ जाइत अइछ, जखन भाषिक समुदायकबीचके अन्तरविरोधके फैदा उठाक’ आन भाषासब अपन गोटी लाल करबाक प्रयासमे हो।

जहाँतक भाषाक मानक स्वरुपक प्रश्न अइछ, त ई राजकीय कार्यव्यवस्थापन अथवा आधारभूत शिक्षाक लेल मात्र आवश्यक अइछ। अन्यथा साहित्यादि आन उद्देश्यक लेल त प्रयोगकर्ता अपना अनुकूल भाषिकस्वरुप प्रयोग क’ सकैछैथ, करिते छैथ। विविध भाषिकाक बीच आपसी हार्दिकताके लेल ई जरुरियो अइछ ।
ब्राह्मणीय मैथिलीक विशिष्ट रुपक बात करी:

‘थिक’ (अइछ, छै, हइ केलेल; जर्ज अब्राहम ग्रियर्सन आदि मैथिलीक अनुसन्धाताके शब्दमे ‘थिका–थिकी’ मैथिली), नासिक्य (तँ — त , एँ — ए, तोँ — तो, जकाँ — जका–नाहित–सन्, सँ — स–से आदि), मध्यम आ तृतिय पुरुषक हेतु सम्बोधनक हकमे उच्चवर्गीय समुदायक बच्चो तकके लेल आदरार्थी आ लोकजन श्रमजीविवर्ग समुदायक नम्हरोके लेल अनादरार्थिता; फेर जौँ डा.यादवक भाषामे कहल जाय त ब्राह्मणीय मैथिली (शिक्षित ब्राह्मण ओ कायस्थक परिवारक, विशेषतः दडि़भङ्गा–मधुबनीक आ ओहि स प्रभावित नेपाल लगायतक ठामक सेहोके वक्तासबके कथ्य भाषा) ‘अति संस्कृतमय, ग्रन्थिल, पाण्डित्यग्रस्त आ अस्वाभाविक’ सुन’मे लगैत अइछ।

मैथिलीक सर्वस्वीकार्यतामे एकर बर्तनीक दुरुह प्रयोग सेहो एकटा प्रमुख अवरोध अइछ, जे वाचन आ लेखनमे भिन्न अइछ। मैथिली पठनीयताके ई दुरुहता विशेष क’ ब्राह्मणेत्तर समुदायमे बेसी देखलजाइत अइछ । आ एकरा कारण उत्पन्न हास्यास्पदता आ हेयबोध ब्राह्मणेत्तर समुदायमे मैथिली लेखन आ पठनप्रति अरुचि, उदासीनता आ अपरिचितपन जन्मबैत अइछ। खास क’ ह्रस्व ‘इ’ के उच्चारणमे ‘’ि के प्रयोग — ‘पाइन’ के जगहपर ‘पानि’, ‘आँइख’ के जगहपर ‘आँखि’ आदि। लिखल रहै छै ‘आँखिमे काटि लेलक’ आ जखन पढ़ल जाइछै ‘आँखीमे काटी लेलक’ त स्थिति हास्यास्पद् भेनाइ आ अही कारण वक्तामे हीनताबोध, अरुचि आ उदासीनता उत्पन्न भेनाइ सेहो स्वाभाविके अइछ। अइमे समयानुकूल परिवर्तनक आवश्यकता अइछ। एकरालेल विशेष क’ मैथिली भाषाके पक्षमे आन्दोलन चलौनिहार अभियानीलोकैन आ सचेत सर्जकसबके अराजकता स बचैत अधिकतम सरल आ सहज वर्तनीके प्रयोग कयनाइ जरुरी अइछ। डा.यादवसन् किछु भाषाविद् आ विद्वानसब सैद्धान्तिकस्तरपर ई स्वीकार करैत छैथ जे स्थितिमे बदलावके आवश्यकता अइछ। वर्तनीमे ध्वनि अनुकूल परिमार्जनके आवश्यकतापर डा. रामावतार यादवके कथन उल्लेखनीय अइछ।

हुनक मतानुसार मैथिलीके वर्तनी आ ध्वनि पद्दतिके समन्वयकेलेल एकटा ‘सर्वमान्य ज्ञान’के आवश्यकता अइछ। एकरालेल ओ ‘पारम्परिक प्रचलित एवं सर्वसम्मत’ वर्तनीके समीचीन मानैत छैथ। ओ लिखैत छैथ:

…ताहि हेतुएँ, मैथिलीक प्राचीनता एवं ऐतिहासिकताक रक्षार्थ पारम्परिक, प्रचलित एवं सर्वसम्मत वर्तनीक प्रयोग एखनहुँ समीचीन। यथा: अछि —अइछ, विद्यापति — विद्यापति —विद्यापैत ।” (डा. यादव , मैथिली लेख सञ्चयन, पृष्ठ–१५१)

मुदा स्थिति ‘पहिने अहाँ चढ़ू त अहाँ चढ़ू’ के अइछ। मैथिलीक भाषारथके ई महासेनापतिसबके लेल अपने वैचारिकताके व्यवहारमे प्रयोग बिलाइके घन्टी बन्हनाइ जका अइछ। यद्यपि अइ आलेखक प्रस्तोता मैथिली बर्तनीमे सहजीकृत शैलीके तीसवर्ष स बेसिए स प्रयोग आ ‘जनमैथिली’के रुपमे एकटा बहसक उठान करबाक प्रयास निरन्तर क’रहल अइछ। एकटा बात निश्चिते अइछ, जे वैचारिकता जाधैर व्यवहारमे परिणत नइँ होइत अइछ ओ निरर्थक अइछ। आ ई शुरुआत कयले स शुरु होइत अइछ। ओ कहैछै नइँ — ‘चलले स चलाइछै’, तहिना लिखले स लिखाइछै।

एतह मैथिलीमे संस्कृताहके शुद्ध आ मानक आग्रहीकेलेल ई तथ्य महत्वपूर्ण भ’सकैय जे जइ प्राकृत, अपभ्रंश वा अवहट्टक कोँइख स लोक भाषा (विद्यापतिके शब्दमे ‘सबजन मिठ्ठा’ अथवा देसीभाषा) मैथिली जन्मल। ओकर मूल लोकशब्दसबके ब्राह्मणेत्तरेसब अखनो जोगाक’ रखने अइछ — बोलीमे, लोकगाथा आ गायनमे आ संस्कृतिमे।
मैथिलीक भाषिक विकासमे भाषामे निहित परिवर्तनशील आ अपरिवर्तनशील तत्वक अध्ययनक लेल एकर ऐतिहासिक भौतिकवादी तुलनात्मक वैज्ञानिक अध्ययन वृहत्ततरस्तरपर आवश्यक अइछ, आ ई एकर विशेषज्ञ आ आधिकारिक विद्वान लोकैन करैथ। आउ हम–

अहाँ बस एकर संक्षिप्त अवलोकन करी:

इसाके छठम् स बारहम् शताब्दि अपभ्रंश भाषासबहक कालखण्ड अइछ, जइमे स अखुनका भारतीय आर्य (इन्डो आर्यन) नवभाषासब विकसित भेल। अहीमे के मागधी अपभ्रंश स मैथिली भाषाके विकास भेल विद्वानसबहक मत अइछ। अही कालखण्डमे युनानी आ भारतीय उपमहाद्वीपमे स्थापित भाषा वैज्ञानिक चिन्तन परम्परासबके प्रभावमे प्राचीन अरबी भाषावैज्ञानिकसब शब्दकोश कला (लेक्सिकोग्राफी)के विकास कयलक आ अरबीव्याकरणके प्रसिद्ध पुस्तक ‘अल किताब’ आ फिरुजाबादीके शब्दकोश प्रकाशित भेल। अही समयमे अरबीभाषा विज्ञानमे पहिलबेर शब्द आ ध्वनि बीच अन्तर कयल गेल।

एहे कालखण्ड अइछ, जहिया अरबी इस्लामीसब भारतीय उपमहाद्वीपमे पसैर रहल छल आ मुगल शासनके पृष्ठभूमि तैयार क’रहल छल, जे परवर्तीकालमे समग्र भारतीय आर्यभाषा आ संस्कृतके सेहो प्रभावित कयलक। एहि प्रभाव स मैथिली सेहो वञ्चित नइँ रहिसकब स्वाभाविके अइछ। मुदा कते ? एकरो खोजी आ अनुसन्धानक भार आधिकारिक विद्वानेपर छोड़नाई उचित होयत। तथापि मैथिलीमे शुद्धताक त्रिकोणीय अन्तरविरोध (अपभ्रंश स विकसित मैथिलीक लोकव्यवहृत मूल शब्दावली, तत्कालीन स्थानीय सामाजिकसत्तापर हावी पाण्डित्यपूर्ण संस्कृतक हस्तक्षेप आ नवआक्रान्ताक अरबीके वर्चस्वपूर्ण घुसपैठ) आ अन्तर्घुलन मैथिलीक शब्द आ ध्वनिके रुप परिवर्तन आ समुदायगत भिन्नताके भाषिक व्यवहार आ वर्गगत् रुप स प्रभावित कयलक। निश्चय, अखन मैथिलीमे जे लोक आ ब्राह्मणीय अभिजात्यपनके अन्तरविरोध देखारहल अइछ, तकर ऐतिहासिक स्रोत उपरका ऐतिहासिक त्रिकोणीय अन्तरविरोधी आ अन्तरघुलित परिघटनामे निहित अइछ।

तेरहम् शताब्दिमे मिथिलेमे विकसित नव्यन्याय चिन्तनधारा ‘जेन्डर’ (लिङ्ग) आ विधेयके रुपसबहक बदला प्रारम्भिक प्रवर्गसबके गुणके मानैतछल। नव्यन्याय दर्शन सोझे भाषेपर आधारित छल। (कात्यायनी आ सत्यम -भाषा विज्ञानके विकासमे मार्क्सवाद और बोलोशिनोव नामक पुस्तकके सम्पादकीय प्रस्तावना, प्रकाशक — राजकमल प्रकाशन, दिल्ली —२००३)। मैथिलीक विविध भाषिक समुदायमे विद्यमान ई ऐतिहासिक अन्तर्द्वन्द आ अन्तर्घुलन भाषाके रुप, शब्द आ अर्थके प्रभावित कयनाइ निश्चित आ स्वाभाविक छल।

एहि समग्र परिप्रेक्ष्यमे विद्यमान अन्तरविरोधी स्थितिक बीच वर्तमानक कठोर यथार्थ ई अइछ जे मैथिलीक भाषिक सत्तापर ब्राह्मणीय भाषिका आ एकर अनुगामी विद्वानसबहक वर्चस्व अइछ। किछु ब्राह्मणेत्तर छैथ त ओहो अही भीडमे सामिल छैथ। मुदा विशाल वञ्चितसमुदायमे भाषिक व्यवहार, शिक्षा आ अवसरके स्तरपर उपेक्षाभाव आ आक्रोश तिख्खे अइछ आ एकरे फैदा उठबैत इतर तत्वसब मैथिली भाषिकक्षेत्रमे घुसपैठ क’रहल अइछ।

एहनमे एकदिस वर्चस्वधारी ब्राह्मणीय पक्षक मैथिलीभाषी समुदायके शुद्धतावादी आ निर्देशनात्मक प्रवृत्ति स मुक्त भ’क’ ब्राह्मणेत्तर भाषिकाके सहजरुपे स्वीकृति आ अपनत्व देबाक चाही। दोसर दिस ब्राह्मणेत्तर भाषिक समुदाय कथित शुद्ध मैथिलीक आगू नत् त अछिए आ एहि स निकलबाकलेल छटपटा रहल अइछ। तथापि ओहू समुदायक सचेतवर्गमे अपन भाषिकाप्रति गर्वबोध आ ब्राह्मणीय भाषिकाप्रति निरा आक्रोश स भिन्न सम्यक दृष्टिकोण अपनयबाक आवश्यकता अइछ।
मुदा पहल त भाषिक सत्तापर स्थापिते सबके कर’ परत। नइँ त मैथिलीक हितप्रति अहाँ कतबो चिन्तित होइ, स्थिति प्रतिकूल होइत जायत। एकटा पाकिस्तानी शायर जौन एलियाके शब्दमे कही त —

“कतेक विचित्र छी हम, बड्ड विचित्र छी हम,
अपनाके तबाह क’रहलहुँ, आ कोनो मलालो नइँ अइ।”
आशा करी एना नइँ होइ। एकटा सझिया स्वीकृत मञ्चपर वैविध्यपूर्ण मैथिलीक जीवन्तता कायम रहय, आ सुदृढ होय भाषिक हार्दिकता आ एकत्व। इत्यलम् !

मैथिलीक अन्तर्विरोध : विश्लेषण आ संश्लेषण

रोशन जनकपुरी

रोशन जनकपुरी | Roshan Janakpuri | मैथिली तथा नेपालीक प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखक छथि। कविता, गीत, गजल अनेको पत्र पत्रिकामे प्रकाशित। प्रकाशित पुस्तक: समय गीत, तथा विभिन्न लेखसभ राष्ट्रिय स्तरक पत्रिकामे छपल अछि।