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निवेदिता झा – नवदुर्गा: प्रकीर्तिता (7)

उड़ै बला चिड़ै  धरती पर खसला पर बहुत काल बादो नइँ मरैत छै

” ओ जलखैसँ भोजन तुषारिसँ मधुश्रावणीमे अथवा बालपनसँ पैघ धरि अहांक सांस्कृतिक समृद्धि मे लागल रहत अहां भने जतेक डंका पीटैत रहू मुदा ओ बिनु बजने महाग्रंथ लिख बैसल अछि जकरा अहां विमर्श नाम द’ कने-कने खोंटि क’ पढ़ि रहल छी, चलू रंग हमर प्रेम अहांक।” पुरुखाही दर्पक घनघोर स्वरकेँ एना देखाबै बला आ परस्पर सामंजस्यक समाधान प्रस्तुत करैबला ई काव्य पंक्ति अछि युवा कवयित्री निवेदिता झा के, जिनकर मैथिली मे एखन धरि चारि टा काव्य सँग्रह प्रकाशित छनि- स्त्रीक मोन, हम रहबे करबै, हमरेसँ रंग आ मणिकर्णिका।

नवदुर्गा: प्रकीर्तिता:के सातम कड़ी मे निवेदिता सन प्रौढ़ कवयित्री केर चर्चा करब अहू खातिर जरूरी अछि, जे हिनक कविता पर हमरा बुझने एखन धरि कोनो गंभीर विचार नइँ भेल अछि, जखन कि अइ कवयित्री लग अपन एकटा निजगूत काव्य शिल्प अछि।

अपन ठेठ कहबी,फकरा आ भाषा अछि, हिनक अन्वेषी दृष्टि कोनो विषयके अनछुअल पहलूकेँ उजागर करय मे सक्षम अछि आ सबसँ पैघ गप स्त्री-विमर्शक गप करैत हुनक स्वर कखनो आक्रामक नइँ होइत छनि, अपितु पुरुष वर्चस्ववादी परंरा पर प्रश्नचिन्ह ठाढ़ करैत ओ समाधान दिस सेहो सँकेत करैत छथि। कहबाक तात्पर्य ई जे हुनक कविता मात्र प्रश्नचेह्न टा ठाढ़ नइँ करैत अछि, अपितु विकल्प सेहो सुझाबैत अछि। दोसर शब्द मे कही तं विकल्पहीन नइँ छनि हुनक काव्यक दुनिया।

हुनक विषयक विविधताक परिचय लेल प्रस्तुत अछि किछु उदाहरण-एक,

“उड़ै बला चिड़ै  धरती पर खसला पर बहुत काल बादो नइँ मरैत छै। ओ फेर अपन पांखिमे हुब्बा आनि भरैत अछि। उड़ान  अइ बेरुक उड़ान ओकरा गंतव्य धरि पहुंचा क’ थम्हैत छै। अइ चिड़ै जकां कतेक स्त्री छथि सभक कथा व्यथा भिन्न छै  मुदा सब केओ चाहैत छथि उड़ान… बालपनक स्वप्नकेँ पांखि देब लेल।”

(ओ चाहैत छथि), दोसर, “बोनक ई आगि  महादेशक मोनक ई आगि अछि,  लगैत अछि  सभ क्यों अपन-अपन पानि नुका लेने छथि। सँवेदना जखन अपने आगि मे झरकि गेल होअय  तँ कहू भला,  कोना बचाकेँ राखल जा सकैछ  आंखिक नोर?मनुष्यके पाथर मे परिवर्तित होयबाक  ई प्रक्रिया तं नइँ अछि? (आगि बोन मे) तेसर, “सँसारक समस्त वस्तु नश्वर  अन्न गलि जाएत माल-जाल बिला जाएत ।

कने नून देला पर हड्डी सेहो  नाम मेटा जाएत  यश कीर्ति कखन धूमिल पड़ि जाएत कियो नइँ जानय सूरूजकेँ ग्रहण मे मलिन पड़ैतके ने देखलक  मुदा ई कतहु नै गलत  नै मिटत” (प्लास्टिक)चारिम, “मरीचिका आ मृगतृष्णाक मध्य  टांगल ओ डोरी  जकरा जिनगी कहल  भ्रम आ प्रेमक कील पर ठोकल देह-आत्मा ई भाग्यक गप किनका भेदैत छै मृत्यु  किनका मणिकर्णिका।”

आ पांचम उदाहरण हुनक एकटा हिंदी कविता सँ-“एक बार पिता कमजोर लगते हैं दूसरी बार चिड़चिड़े  एक बार गुस्सा से भरे हुए एक बार पीले कांतिहीन इस एक बार से दूसरे बार मेंबेटियाँ अन्दर तक दरकती है कराहती है  सब्जियाँ जलती है दूध उबलता है पति से झगड़ती है और फिर चली जाती है मायकेपिता अब अस्पताल जाने लगे हैं कई बार माँ की चिन्ता होने लगी है उसेआशंकाओंमे जूझ रही है वो भाई भाभी को निहारती हैऔर अस्पतालके बेंच पर बैठ दुहराती है पिता की उम्र पाँच सौ बर्ष होनी चाहिए ईश्वरया उससे भी अधिक“।

ई सब उदाहरण मात्र अइ लेल जे हुनक काव्य सरोकार, काव्य चिंता आ हुनक दृष्टिक नवतासँ परिचिति कराओल जा सकय। निवेदिता गंभीर कवयित्री छथि आ हुनक कविता गंभीरतासँ पढ़ल जयबाक मांग करैत अछि।

स्त्रीक जीवन, ओकर इच्छा-आकांक्षा, सामाजिक आ राजनीतिक विद्रूपता, पर्यावरणीय सँकट, मानवीय जीवन-मूल्यक क्षरण आदि विविध काव्य विषय पर अलग दृष्टियें ई अपन कलम चलौनि अछि। हुनक साहित्य सृजनक सौरभ आ लालित्य मात्र मैथिली धरि सीमित नइँ छनि, हिंदी साहित्य जगत मे ओ सेहो नीक जकां समादृत छथि।

राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रक विविध साहित्यक कार्यक्रम मे हुनक उपस्थितिसँ ओकरा अकानल जा सकैत अछि। भखराइन (मधुबनी)क बेटी निवेदिताक सासुर पाली-घनश्यामपुर (दरभंगा) छनि। अपन कविता मे सौम्य समाधान प्रस्तुत करय बाली निवेदिता व्यक्तिगत जिनगी मे सेहो सँवेदनशील, सरल, सहज आ मित्रवत छथि।

एखन राजधानी दिल्लीक एकटा अस्पताल मे एचआईवी पीड़ित मरीजकेँ मनोवैज्ञानिक सलाह दट हुनका सभ मे जीवनक प्रति उत्साह जगबैत छथि। कोरोना काल मे अनेक लोगकेँ चिकित्सीय आ दवाइ सँबंधी मदद ओ कएने छलीह। उम्मीद अछि निवेदिता अइना अपन सृजनपथ पर आगू बढ़ैत रहतीह आ पाठक लोकनि सेहो हुनक काव्य प्रतिभाकेँ सराहैत रहताह।

रमण कुमार सिंह

रमण कुमार सिंह, बिसनपुर, सुपौल (बिहार) मैथिली एवम् हिन्दी भाषाक कवि, समिक्षक, साहित्यकार छथि। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकासभमे रचना लेखन, अनुवाद एवम् आलोचनामे महत्वपूर्ण योगदान देने छथि। Raman Kumar Singh, आइ लभ मिथिलाक अथिति लेखक।

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