देवेन्द्र मिश्रक पाँचटा मैथिली कविता
पहिल कविता “ई सभक मैथिली”
जे जहिना बाजए ।
सएह छियै मैथिली ।।
जे अहाँ बजैछी, सएह छियै मैथिली ।।
ई हमर मैथिली,ई अहाँक मैथिली ।।१।।
एक्के जातिक छिए ने किनल,
दछिनाहा ने पूबारि छियै ई ।
नइ कोशिकन्हा,ने दडि़भङ्गिया
पछिमाहा ने उतरबारि छियै ई ।।
कोइर,कमार,चमार,दुसाधो,
मुसहर,तेली आ हलुवाइ ।
बाभन,कैथ आ यादव,धानुख,
राजपूत,बनियाँ,गनगाइ ।।
क्यौट आ कुर्मी, माली,हलखोर
डोम, वैश्य,कुज्जर,कलवार ।
सुँड़ी, थारु, बाँतर, खतबे,
राजधोब आ भाउर,सोनार ।।
आओरो विविध जाति आ वर्गक
बोली अप्पन अलग–अलग ।
तीन कोसपर बोली बदलै,
भाषा नइ अछि विलग–विलग ।।
ठेठी आ देहाती कहियौ
मैथिलीक बहु डारि छियै ई ।।
विविधताकेर स्वर्ग मैथिली
फूल नइ फुलवाडि़ छियै ई ।।
जे जहिना बाजी
सएह छियै मैथिली ।
ई हमर मैथिली ।
अहाँक मैथिली ।।
ई सभक मैथिली ।।
दोसर कविता “यक्ष प्रश्न”
यक्ष–प्रश्न
कानमे झऽर पारएबला
पिपहीक स्वरनाद,
दशमीक ढोलकेर डिम डिमाडिम ।
आ, ओहि मध्य
पतरकी डोरिसँ बान्हल छागर प्रतीक्षा कऽ रहल अछि –
परीक्षाक ।।
माथपर फूल–अक्षत राखल गेल
परीक्षक (कि बधक?) केर वक्रदृष्टि पड़ल
परीक्षार्थी – ओ छागर
बुझि रहल हएत
जे –
परीक्षोपरान्त,मुड़ी हिलेलाक बाद
लाल टेँस शोनिताएल कत्ता
खसबे करत ओकर गर्दनिपर ।
मुदा,
निश्चिन्त भावसँ समीपे चतरल दुइबकेँ
लुब–लुब खा रहल अछि,
विल्कुल निःस्पृह,निष्काम,निश्चिन्त
मनुक्खे जकाँ
निफिकीर आ लापरबाह ।
सब जानितो
किछु नइँ जानैत अछि
युधिष्ठिरक उत्तर
यक्ष–प्रश्नक ।।
तेसर कविता “कठजीब”
(१)खेतो बनाओल
परतीकेँ तोडि़कऽ ,
माइटो सरिआओल,
आइरो बनाओल,
चासल–समारल, चौकिआकऽ
बिओ बुनल गेल ।
हरिअर लह–लह गाछो जन्मल,
कमौनी–खटौनी–पटौनी,सब किछु भेल ।।
आ
बालि जखन काटएलेल तैआर भेल,
तऽ बड़का पाड़ा आएल
आ सर्वग्रास कऽ देल एक्के पहरमे ।
मुदा, ई की ?
फेरो कर्मोद्धत भऽ
लागि गेल
कर्मक खेती कएनिहार
ई मनुक्खो कठजीव ।।
(२)
एक–एक बुन्न लेल
फूले–फूल छिछिआइत
जिनगी बितौलक ।
परन्तु,
छत्तामे सञ्चित सबटा मउध
काटिकऽ गाइर लेल गेल,
दण्डितो कएल गेल, धुकारी दऽ कऽ
मधुसंग्रहक अपराधमे भरिसक ।।
मुदा, ई देखू,
फेरो छिछिएनाइ प्रारम्भ कऽ देलक
दोसर छत्ता–निर्माणकलेल,
ई जानितो जे फेरो केओ काटबे करत आ
गारबे करत सबटा मउध,
भन–भन–भनभन,
भनभनाइत, बेचैन अछि
गीतोक्त कर्मयोगीए जकाँ
ई मधुमाछिओ कठजीव ।।
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चारिम कविता “सूर्योदय”
पुरुबसँ सदति उगैत
युग साक्षी सुरुज
ललौँस चद्दरि ओछाकऽ
पश्चिमक शरणमे जा रहल,
जा रहल ओत्तहि सूतए आब ।
इयाद अछि एकरा जे –
अप्पन तप्पत धाहसँ
झरकौलक, तबधेलक अहंकारी मरुभूमिकेँ
आ
नवजीवनो देलक
सकल प्राणधारीकेँ ।
मुदा, आब जखन
भयावह कारी राति, गीड़ए आबि रहल
तऽ
किएक ने दुबकिए जाए
समुन्द्रक ओइ पार
गगनचुम्बी उज्जर महलक दोगमे –
जतए आधुनिक नव सज्जामे
राहु बैसल
पश्चिमसँ देखैत, साम्राज्य पूबक,
जरि–जरि खकसिआह होइत
घात लगौने बैसल छल,
से –
आब बैसल अछि,सर्वग्रास करए ।
तएँ किएक ने ओ बाट ताकए
स्वघोषित धड़बिहीन राहुक अन्तक
ओ किएक बिसरि रहल जे –
जतए पश्चिमक अन्त होइ,
ओत्तहिसँ पूबक आरम्भ होइछै ।।
राहु –
जे राखि नहि सकत अन्हारमे बेसी काल
आ
प्रतीक्षारत सुरुज अछि
ओहि उषाकालक
जखन
गगनचुम्बी पश्चिम
पूब मुहेँ झुकि कऽ
नव लालिमा, नव–पुरातनताकेँ आलिङ्गन करत
सूर्योदय होइते रहत
सुरुज पूबक उगबे करत
आ उगिते रहत ।।
पाचँम कविता “ई की भऽ गेल ?”
(१)
गुज–गुज अन्हारोमे
साँझेसँ खुरखुर करैत
सब सरजाम जोडि़
अपन पेटमे जुन्नो बान्हि
ओकरालेल ओरिआओन करैत
पहाड़ सन राति बिताओल ।
मुदा,
किरिन उगिते ओ–
छाती तानि ढाही मारि देल
हा दैव ! ई की भऽ गेल ?
(२)
असोथकित पाँखुरसँ
चेहैर दैत
नाहकेँ ठेलने जा रहल
इएह आएल अरौ,तऽ ओएह आएल–
आसमे एहने आँखि पसारने
ढेह चिरने जाइत ओ ।
मुदा,
जकरा ओ अर्रा बुझैत छल
से तऽ मझधार सिद्ध भेल
हाय रे विधाता ! ई की भऽ गेल ?
मिथिला देवघर यात्री एहि बेर सुरू कएलक ‘सप्तरी बोलबम यात्रा’
(३)
छोटकी–छोटकी खाँडि़केँ
चेकी दऽ कऽ बान्हैत
मोका–मोकी सेहो गहैत रहल
पेनाठीसँ, एँडि़ओसँ ।
मुदा,
नहि जानि कत्तएसँ बोह आबि
बेसम्हार खाँड़ कऽ देल
हाय रे दैवा ! ई की भऽ गेल ?
(४)
कोना–कोनी,दोगा–दोगी
बहाडि़–सोहाडि़, नीपि–पोति
ढुर–ढुर चिक्कन करैत रहल
सोचैत रहल सचेत भऽ जे
एक्कोटा खढ़ो ने रहि जाए
किरणपुञ्जक आगमनपर ।
मुदा,
किरणपुञ्जेक सङ्ग आएल अन्हड़
आ, सबटा धङरचास कऽ देल
हाय रे बिधना ! ई की भऽ गेल ?
(५)
अञ्जन बनाओल
लेपो लगाओल जाइत रहल
बैदो बेसाहल जा रहल
बढ़बाकलेल ज्यातिपुञ्ज आँखिक ।
मुदा,
अन्तिम क्षणमे जा कऽ
आँखिए ई फूटि गेल
हाय हो रामा ! ई की भऽ गेल ?’
इहाे पढु– मैथिली साहित्यकारलोकनिके किए अछि कलमके नोक भोँथियाएल ?