Story

सहोदर भाय (Maithili Story)

जगदीश प्रसाद मंडल
आइ पनरह दिनक बाद जगरनाथसँ घुमिक’ एलौं। ओना, गाड़ीक (ट्रेनक) रस्ता चौबीसे घन्टाक अछि, मुदा अपने पनरह दिन लागि गेल। पनरह दिन लगैक कारण भेल जे जखन देखैये विचारसँ जगरनाथ गेल छेलौं तखन सूर्यक कोणार्क मन्दिर आ बंगलाक शान्ति निकेतन, सुन्दरवन, विक्टोरिया हाउस, इंगलिश बाजार इत्यादि नइँ देखितौं तखन गेबे किए केलौं। तँए सभ देखैत-सुनैत पनरह दिन लगि गेल। ओना, पहिने जखन लोक पएरे, जगरनथिया बेंत नेने गीत गबैत जाइ-अबै छला तखन छअ मास लगै छेलनि।

मुदा आब तँ गाड़ी-सवारीक सुविधा भेने चारि-पाँच दिनमे जाए-आबि सकै छैथ। गाम अबिते पत्नी कहलनि जे ललित काका अब-तबमे छैथ। जइ घड़ी जइ पहर छैथ सएह बहुत!

पत्नीक मुँहक समाचार सुनि मनमे विचार केलौं जे जखन ललित कक्काक एहेन स्थिति छनि तखन पहिने हुनकर दर्शन करब जरूरी अछि। किए तँ एहनो सम्भव अछिए जे कहीं बिच्चेमे प्राण छुटि गेलनि तखन अन्तिम भेँट नइँयेँ हएत। जेबो करब तँ मात्र मृत शरीर टा देखबनि। मनमे तेते जिज्ञासा जगि गेल जे हाथो-पएर ने धुअ लगलौं आ ललित काकासँ भेँट करए विदा भेलौं।

ओना, गाड़ीक झमारसँ देह-हाथ दुखाइये रहल छल मुदा जँ खा-पीब क’ आराम करए लगितौं आ जँ तइ बिच्चेमे ललित काका चलि बसितैथ तखन तँ मनक विचार मनेमे रहि जाएत। ओना, मनमे ईहो उठिये रहल छल जे जाइ काल, माने जगरनाथ जाइकाल भेँट केने रहियनि, मुदा ओइ दिन तँ कोनो तरहक शिकायत शरीरमे नइँ रहैन, बिच्चेमे की भ’ गेलनि? मने-मन रास्तामे हुअए जे झटैक क’ नइँ जाएब आ तइ बिच्चेमे जँ कहीं प्राण छुटि जानि तखन तँ गेलहो साफल नइँ हएत। तँए खूब झटैक क’, बुझू जे दौड़िते ललित कक्काक घरपर पहुँचलौं।

ललित काका दरबज्जाक ओसारक चौकीपर चद्देरसँ मुँह झाँपि सुतल छेलैथ। सुतल कि छेलैथ जे जगले आँखि मुइन पड़ल-पड़ल किछु सोचि रहल छेलैथ। लगमे पहुँचते टोकलयैन-

“काका, काका, सुतल छी?”
जहिना अपने बजलौं तहिना ललित काका अप्पन मुँहपरसँ चद्देर हटा आँखि खोलि बजला-
“नइँ, सुतल नइँ छी, ओहिना पड़ल छी।”

ललित काका उठिक’ बैसला। अपनो निच्चाँसँ ऊपर ओसारपर चढ़ि चौकीपर बैसलौं। मनमे एते आशा तँ जगिये गेल जे कक्काक दर्शन भ’ गेल। तँए, अखन धरिक मनक सब घबड़ाहट मेटा गेल। बजलौं-
“अखने कनियेँ पहिने जगरनाथसँ एलौं हन। अबिते पत्नी कहलनि तँए दौड़ल एलौं। ओना, गाड़ीक झमारसँ देह-हाथ बथैए तँए नहा-खा क’ किछु समय आराम करब तखन मन हल्लुक हएत। अपनेक समाचार सुनि मन तेतेक घबड़ा गेल जे अपने ले परसादीओ ने लिअ लगलौं। ऐठामसँ जाएब तखन नहा-खा क’ आराम करब, पछाइत निचेनसँ आएब, परसादियो नेने आएब आ यात्राक वृतान्त सेहो सुनााएब।”

विचारक क्रम, माने गप-सप्पक क्रममे आकि मनक चिन्ता असथिर भेने, ललित काका बजला-
“पैछला दिन जे भेँट भेलह तइ दिन जगरनाथ जेबाक चर्च कहाँ केने छेलह। असगरे गेल छेलह आकि आरो गोरे सभ गेल छेलैथ?”
ललित कक्काक विचार सुनि मने-मन विचारलौं जे जखन झूठ नइँ बजै छी तखन झूठ किए कहबैन। बजलौं-
“काका, एकाएक जगरनाथ जेबाक विचार नइ भेल। विचार बहुत दिन पहिनेसँ मनमे आबि रहल छलए, मुदा मनक विचार मनेमे रहि जाइ छल आ नइँ जा पबै छेलौं। ऐ बेर संयोग नीक बैसल, पैछला छअ मासक वृद्धा-पेंशन भेटल, जगरनाथ जेबाक विचार मनमे रहबे करए, केकरो किछु कहलिऐ नइँ, असगरे विदा भ’ गेलौं।”
दुनू गोरे, माने ललित कक्काक संग अपने गप-सप्प करिते रही कि सुमित्रा काकी आँगनसँ दरबज्जापर आबि बजली-
“बौआ, सुनलौं जे अहाँ जगरनाथ गेल छेलौं, परसाद कहाँ देलौं?”

सुमित्रा काकीक बात सुनि बजलौं-
“काकी, ठीके सुनलिऐ हेन, कनियेँ काल पहिने गाम पहुँचते छी कि कक्काक समाचार सुनि धड़फड़ाएले चलि एलौं, तँए परसाद नइँ आनि सकलौं। बेरू पहर जखन आएब तखन परसादो, बद्धियो आ समुद्री शंख सेहो नेने आएब। अखन, गप्पो-सप्प करैक मन नइ होइए तेते थकान अछि।”
जहिना सुमित्रा काकीकेँ कहलयैन तहिना ओ मानि गेली। तइ बिच्चेमे ललित काका बजला-
“सुधीर, अपना मनमे होइत हेतह जे तीन राज्यक यात्रा केलौं अछि मुदा तीनू एक्के छल ने।”
ललित कक्काक विचार सुनि अपने गुनधुनमे पड़ि गेलौं जे बिच्चेमे ललित काका की कहि देलनि.! बजलौं-
“काका, अहाँक विचार नीक जकाँ नइँ बुझि पेलौं।”
मुस्कुराइत ललित काका बजला-
“साए-सबा-साए बर्ख पहिने तीनू राज्य एक्के छल जे बंगालक नामसँ जानल जाइ छल। अंगरेजे समयमे उड़ीसो आ बिहारो अलग भेल। अंगरेजी शासनक पछाइत बंगाल फेर विभाजित भेल जे पूर्वी बंगाल आ पच्छिमी बंगाल भेल। पूर्वीए बंगाल पूर्वी पाकिस्तान भेल। वएह अखन बंगला देश बनि गेल अछि।”

ललित कक्काक विचार सुनि मनमे जेना एकटा नव जानकारी आएल, जइसँ मन खुशी भ’ गेल। बजलौं-
“काका, अखन तक जे नइ बुझै छेलौं से आइ बुझलौं।”

गप-सप्प करिते रही कि तहीकाल कोरामे बच्चा नेने शारदा पहुँचल। शारदा ललित कक्काक बेटी। लगमे अबिते शारदा ललित कक्काक संग अपनो गोड़ लागि बिना किछु बजने आँगन चलि गेल। आँगन गेला पछाइत आन बेटी जकाँ शारदा कानल नइँ। आँगन पहुँच पहिने गोसाँइ आगू जा गोड़ लगलकैन आ घरसँ निकैल माएकेँ सेहो गोड़ लगलक। अपने विदा भेलौं।

चारि बजे जगरनाथक सनेस नेने ललित काका ऐठाम पहुँचलौं तँ शारदो आ सुमित्रो काकी माने पत्नियोँ आ बेटियोकेँ ललित काका लग बैसल गप-सप्प करैत देखलयैन। हमरा देखिते दुनू गोरे उठि गेली। सनेसक पुड़िया हाथमे रहबे करए, सुमित्रा काकी दिस बढ़बैत बजलौं-
“काकी, सनेस लिअ।”
पुड़िया खोलि चूड़ो आ मकैया-लड़ूओ एक मुट्ठी ललितो काकाकेँ सुमित्रा काकी देलकैन आ बाँकी नेने दुनू माइ-धी आँगन चलि गेली। दुइये गोरे, माने अपने आ ललिते काका टा दरबज्जापर रहलौं। एकान्त बुझि आकि अपनत्व बुझि ललित काका बजला- “सुधीर! देहक रोग, माने दैहिक बिमारी अपना नइ अछि।”

ललित कक्काक विचार सुनि मने-मन विचारए लगलौं जे ई की ललित काका बाजि रहल छैथ? अखन तक मानसिक रोग नइ बुझै छी। आँखियोसँ देखै छी आ शरीरक कष्टोसँ बुझि पड़ैए जे बिमारी शरीरे टामे होइए। बजलौं-
“काका, जखन देहमे रोग नइ अछि तखन तँ निरोगे भेलिऐ किने?”
अपने मानसिक रोग नइ बुझै छी मुदा ललित काका तँ फुटा-फुटा क’, माने अलग-अलग शरीरोक रोग आ मनोक रोग बुझै छैथ, तँए बजला-
“निरोगो नइ छी, दैहिक आ मानसिक दुनू तरहक रोग मनुक्खकेँ होइए। अपना जे रोग अछि ओ मनक छी, माने मानसिक छी।”

मने-मन तर्क-वितर्क करए लगलौं जे जइ मनकेँ देखबो ने करै छी, तइ मनकेँ रोग केना पकैड़ लइए? मनमे ईहो हुअए जे समाजमे ललित काका ओहन लोक छथिए जे झूठ-फूससँ कोसो दूर हटल रहै छैथ तँए झूठ तँ नइँयेँ बजै छैथ। मुदा अस्वस्थ जकाँ, माने रोगाएल जकाँ किए लागि रहल छैथ? केना कहबैन जे काका जखन दैहिक रोग नइँ अछि तखन चद्देर ओढ़िक’ किए सुतल छी? तहूमे गाम-समाजक लोक सेहो बजिते छैथ जे ललित काका सीरियस बिमार छैथ। अब-तबक स्थितिमे छैथ?
ओना, अखन तक हर मनुक्खमे एहेन संस्कार घर केनइँ अछि, माने विचार बनले अछि जे अप्पन परिवारक कमजोरी दोसर लग, माने अनका लग नइ बाजए चाहैए। किए तँ ऐसँ अपने परिवारक हीनताइ हएत। मुदा समय एलापर, माने बेर पड़लापर स्वत: बजा जाइते अछि। सिहरैत-थरथराइत ललित काका बजला-
“सुधीर, अखन तक ने तोरा आन बुझै छिअ आ ने तोरा परिवारकेँ बीरान बुझै छिअ, तँए तोरा लग खुलिक’ बजै छी।”
ललित कक्काक विचार सुनि मन जेना भीतरे-भीतर पसीज गेल। मुहसँ बकार किछु नइँ फुटि रहल छल मुदा चेहराक रंग ओहन बनि गेल जे गम्भीर-सँ-गम्भीर विचार सुनैले तैयार छी। जे ललित काका आँकि लेलनि। हृदय खोलि बजला-

“सुधीर, तोरा तँ बुझले छह जे भगवान चारिटा सन्तान देने छैथ। तीन टा बेटा आ एकटा बेटी। बेटी सभसँ छोट अछि आ तीनू बेटा नमहर, माने जेठ अछि?”
बुझल रहबे करए, बजलौं-
“हँ, से तँ बुझले अछि।”
ललित काका आगू बजला-
“पाँच सालसँ बेटी सासुर बसैए। दुनू बेटामे जेठका पनरह सालसँ आ मझिला बारह सालसँ बाहर रहैए, माने मुम्बईमे रहैए।”
बिच्चेमे बजलौं-
“हँ, से तँ रहिते अछि।”
ललित काका-
“केतेक मेहनतसँ दुनू भाँइकेँ पढ़ेलौं-लिखेलौं से तँ तूँ जनिते छह?”
बजलौं-
“हमहीं टा किए, समाजक लोक सेहो जनैए।”
ललित काका बजला-
“दुनू अप्पन-अप्पन पत्नी आ धिया-पुता ल’ क’ बाहरे रहैए। सुनै छी जे दुनू भाँइ नीक कमाइए, मुदा घर (परिवार) बिसैर गेल अछि। ने कहियो गाम अबैए आ ने एकटा पाइ दइए।”
बजलौं-
“काका, एहेन अहींटा केँ नइँ अछि, बहुतोकेँ अछि। कहबी छै जे ‘ऊपर चढ़ि-चढ़ि देखा, सब घर एक्के लेखा’। मोटा-मोटी एहेन परिवेशे बनि गेल अछि। बजैक क्रममे सभ बजैए जे श्रवण कुमार जकाँ माए-बापक सेवा करब, मुदा ओ बाजबे धरि सीमित भ’ गेल अछि।”

हमर विचार सुनि ललित काकाकेँ जेना बुकौर लगि गेलनि। बोलीक स्वर थरथराए लगलनि। ने किछु ललित काका बाजि रहल छैथ आ ने अपने मुहसँ किछु निकैल रहल अछि। अपना मुहसँ ऐ दुआरे किछु ने निकैल रहल अछि जे ललित कक्काक आगूक जीवन, ओहन अन्हारमे पड़ि गेल छनि जे दुनियाँक कोन बात जे अपनो देह-हाथ नइँ देखि पेब रहल छैथ। एहने स्थितिमे लोक निस्सहाय, निर्बल बनि अचेत भ’ खसि पड़ैए।

थोड़े काल चुप्पा-चुप्पी रहला पछाइत चुप्पी तोड़ैत ललित काका बजला-
“सुधीर, अपने दुनू परानी बुढ़ भेलौं। उमेर तँ पचासेक लगभग अछि मुदा बुझले छह जे कबीरो दास कहने छैथ, ‘चिन्ता से चतुराइ घटे, सोग से घटे शरीर, पाप से लक्ष्मी घटे, कह गये दास कबीर’।”

ओना, अपनो बुझल अछिए जे ललित कक्काक तेसर बेटा विकलांग छनि, माने एकटा पएर सुइख गेल छइ। तेकरे सोग भरिसक ललित कक्काक मनकेँ गछाड़िक’ पकड़ने छनि। सोभाविको अछिए। जइ मनुक्खकेँ एकटा पएर काजक नइँ रहत ओ उठिक’ ठाढ़ केना हएत आ जखन ठाढ़े नइ भेल हेतै तखन चलि-बुलि केना सकैए? जखन चलले-बुलल नइ हेतै तखन किछु क’ केना सकैए? ओना, बैसलो-बैसल बैसारी-काज कैये सकैए मुदा जीवनो तँ जीवन छी जे सोल्होअना सभ किछु बैसले-बैसल नइँयेँ चलि सकैए.! लगैए तँए ललित कक्काक मुहसँ बोल नइँ फुटि रहल छनि।

ओना, गामो-समाजमे देखिते छी जे एहेन-एहेन लोकक, माने अपलाँग-विकलाँगक जीवन केतेक कष्टकर होइए। जाबे तक माता-पिता जीवित रहै छैथ ताबे तक अप्पन सन्तान बुझि कोनो तरहेँ तँ पार-घाट लगा लइ छैथ मुदा माता-पिताकेँ परोछ भेने ओकर दशा केहेन होइए सेहो तँ देखिते छी।

भाए भैयारीक सेवा केते करत। हँ, एते जरूर अछि जे किछु भाए-भैयारी एहेन अछिए जे सहोदर बुझि अप्पन दायित्वक निर्वहन करै छैथ, मुदा ओ तँ अल्पांश अछि।

दुनू गोरे, माने अपनो आ ललितो काका, गप-सप्प करिते रही कि शारदा चाह नेने पहुँचल। ओना, अढ़ दबि शारदा दुनू माइ-धी, सभ बात, दुनू गोरेक बीचक, सुनियेँ रहल छेली, मुदा किछु बाजि नइँ रहल छेली। चाह रखि शारदा बाजल- “बाबू, अहाँ मनक चिन्ता हटाउ। अहाँ बुढ़ छी, तँए चिन्ता अछि जे अपना मुइला पछाइत सुनील भैयाकेँ के निमरजना करत। मुदा हम तँ से नइँ छी। हम करबनि।”
बेटीक विचार सुनि ललित कक्काक मन ओहिना कलैश उठलनि जेना मौलाएल-मन्हुआएल गाछमे नव कलश चलिते कलैश उठैए। हाथसँ चाहक कप लैत ललित काका शारदा बेटीक चेहरापर नजैर दौड़ौलनि। नजैर दौड़िते ललित कक्काक मनमे जेना नव उत्साह जगलनि

तहिना एक चुस्की चाह मुहमे लैत बजला-
“बाउ, तोहूँ तँ स्वतंत्र नइँयेँ छह, पराधीने छह, तखन?”
संकल्पित साध्वी जकाँ शारदा कहलकैन-
“बाबू, हमरो हाथ-पएरमे शक्ति अछि। जँ केतौ बाधा-रूकावट परिवारमे हएत, तेतए ओकर मुकाबला करब।”

पिता-पुत्रीक विचार सुनि अपनो मन उत्साहसँ भरि गेल। उत्साहित होइत बजलौं-
“काका, मनक चिन्ताकेँ मनसँ हटा लिअ। अहाँकेँ एते सम्पैत अछि जेकर उपयोग नीक जकाँ हएत तँ एक जीवन, माने एक गोरेक जीवनकेँ के कहए जे अनेको जीवन नीक जकाँ चलि सकैए।”

चाह पीबैत-पीबैत ललित कक्काक मन ओहिना फुला गेलनि जेना अनुकूल वातावरण भेटलापर अपराजित फुलाइए। तैबीच सुमित्रा काकी सेहो आँगनसँ निकैल दरबज्जापर आबि आगूमे ठाढ़ भ’ बजली-
“सुधीर बौआ, सुनील सन्तान छी! अपाहिज जरूर अछि, मुदा ओकर जे बुद्धि तीक्ष्ण छै जेकर वर्णन नइ हुअए। जेठका दुनू बेटा भलेँ ओकरा भाए नइँ मानि सेवा नइ करैए, किए तँ देखिये रहल छी जे एते कमाइए, अप्पन स्त्री आ बाल-बच्चा छोड़ि जखन माइयो-बापकेँ एकोटा पाइ नइ दइए तखन भाए तँ सहजे दियादे भेल।”

सुमित्रा काकीक विचारमे सह दैत बजलौं-

“काकी, सुनीलक एकटा पएर अवाह अछि जइसँ चलै-फीड़ैमे असुविधा होइ छै, मुदा बैसलो-बैसल तँ लोक किछु कैये सकैए। तहूमे शारदा बहिन जखन सेवा करैले तैयार अछि तखन अहाँ दुनू परानीकेँ मनसँ चिन्ता हटा लेबाक चाही।”
भार मुक्ति होइ आकि कर्ज मुक्ति, जखन मनुक्खकेँ मुक्ति भेट जाइए तखन एकटा नव जीवनक आगमन होइए। बजलौं-
“काका, अपना जीबैतमे दुनू भाँइकेँ बजा, समाजक बीच पुछि लियौ। जँ नाकर-नुकर करत तँ अप्पन जे सम्पैत अछि ओकर निराकरण समाजक बीच क’ लिअ। केकरो भरोसे कियो जन्म नइँ लइए।”
ललित काका बजला-
“सएह?”
बजलौं-
“सएह ने ते आरो की।”

(शब्द संख्या: 1950, तिथि: 04 सितम्बर 2024)

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जगदीश प्रसाद मण्डल

जगदीश प्रसाद मण्डल बिहार राज्यान्तर्गत मधुबनी जिलाक ‘बेरमा’ गाम निवासी छथि। हिनक जन्म 05 जुलाइ 1947 इस्वीमे भेलनि। दू विषयसँ एम.ए. अध्ययन कएलाक बाद विशेष क’ अपने समाज-राज्यक रूढ़ि आ‌ सामन्ती व्यवहार हिनका बेस हतोत्साहित कएलकनि, जेकरा विरुद्धक लड़ाइमे व्यस्त भ’ गेलाह। दर्जनो केस-मोकदमा, दर्जनो खेप जहल यात्रादिमे हिनक जीवनक अधिकांश समय (लगभग 35 वर्ष) व्यतीत भ’ गेलनि। पछाति (प्राय: 2000 इस्वीक बाद) साहित्य सृजन दिसि प्रवृत्त भेलाह जे अद्यतन नियमित रूपेँ सृजन क’ रहल छथि।

साहित्यक बहुत रास विधामे कलम चलौनिहार हिनक बहुत रास कथा संग्रह, एकांकी, नाटक, कविता, बाल साहित्य, उपन्यास, नारी केन्द्रीत साहित्यसभ, निबन्ध-प्रबन्ध-समालोचनासभ प्रकाशित छनि।
मैथिली साहित्य जगतमे प्रसिद्ध ओ यशस्वी रचनाकार मण्डल जी मैथिली उपन्यास “पंगु” लेल साहित्य अकादमी मूल पुरस्कार-2021 लगायत अनेकानेक पुरस्कार ओ सम्मानसँ पुरस्कृत ओ सम्मानित छथि।

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