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सोलकन्ह (मैथिली कथा) विभूति आनन्द

'जनिते छही,ऊ बाभन नै न हइ, बाभन के नँगरी हइ..

सोलकन्ह

ओ कहलक- ‘आजिज हो गेली !’
– ‘से की ?’ हम पुछलियनि ।
– ‘सास-पुतोहुमे पटबे नै करै हइ !’
– ‘किएक ?’
– ‘की जाने !’
– ‘किछु त’ कारण हेतै !’
– ‘हमर कनियाँ लया हइ न !’
– ‘ओ…! किछु तेहन बाजि दैत हेतै !’
– ‘सेहे बुझू ।’
– ‘माय के से बुझबाक चाहियौक ने जे पुतोहु नब-नौतार अछि !…’
– ‘ईह !’
– ‘मने ?’
– ‘ओहो तेहने कड़ा हइ ! गोतनी नाहित लड़ैत रहै हइ…’
हम सोचलौं, आब की कहिऐ ! तैयो पूछि देलिऐ- ‘बाबू नै बरजै छौ माय के !’
– ‘नः ! ओकरे पच्छ लेतै !’
– ‘त’ तहूँ अपन कनियाँक पच्छ ले ने ! झगड़ा कम भ’ जेतौ !’
– ‘माइ हइ न, कोना के ओकरा छोड़ देबै !’
– ‘आ बाबू त’ अपन कनियाँक पच्छमे ठाढ़ रहै छौ ने !
– ‘बाबू त’ हमर साफे गुआर हइ !’

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हमरा भेल जे सरकि जायत । बेटा, बापकेँ कहै छै गोआर ! ओना जातिसँ रीझन, यादव अछि । से ओकर ई स्वभाव हमरा शुरुयेसँ नीक लगैत अछि ।

रीझन हमरा ओत’ ड्राइवरी करैत अछि । मुदा टाइम-टेबुलसँ । ओकरा बूझल छै हमर ड्यूटी । मुदा जँ ताहिमे कोनो बिसंजोगसँ व्यवधान भेलै, ओकर मोन अनोन भ’ जाइ छै । ओ किछु नै बाजत । चुपचाप गाड़ी चलबैत रहत- चालीस, साठि, सत्तरि, अस्सी, सौ…
ओ अपन तामसकेँ स्पीड संग उतारैत अछि । टोकबै तँ कम क’ देत । फेर बिसरि जायत । ओहि दिन तमसायले गैरेजमे गाड़ी लगायत आ चल जायत । प्रात भेने आयत । मुदा एकदम फ्रेस । सौम्य मुखमण्डल ।
मुदा तें बाहर नै जाय चाहत । एहि एबजमे भरोदिन खटा लियौ । गाम चल’ कहियौ, चल जायत । कोनो सभा-सोसायटी वा कर-कुटमैतीमे चलबाक छै, चल जायत । बरु गुम्मे सही । मुदा घर घुरि चल आओत, ताहि विश्वासक संग ! मुदा जखने कहबै- ‘रीझन, एकाध हप्ता लेल चलबह घूम’ लेल ! नै कतौ त’ पटने !’

रीझन चुप । मुँह तेना बना लेत जे बहिं, फेर अपने तामस भ’ जायत- दुर, हटाइये दै छिऐ ! एहन ड्राइवरसँ कोन लाभ, जे अपन शर्त पर ड्यूटी करय ! दससँ चारि । बड़ भेलै तँ पाँच । हे छौ सेहो राखि लिअ…
हम तामस पीबि लै छी । अपना हाँक’ नै अबैए । आ आब सीखल सेहो नै होयत । डर लगैए । मर’सँ नै लगैए । अंग-भंग कहीं भ’ गेल तँ काहि काटि मरबासँ डर लगैए । हम चटपट मर’मे विश्वास करै छी ।
से हमर बाहर चलबाक जिद पर रीझन एकदिन भूमिका बान्हिये देलक- ‘हमरा त’ पाँच बरिस हो गेलै सर !’
– ‘कथी के ?’
– ‘शादी के !’
– ‘हँ, तखन ?’
– ‘बच्चा नै न भेलै अभीतक !’
– ‘ओह, च्चच्चच्चच्च…’
– ‘हँ । से एगो बाबा से देखेलिऐ । कहलकै अगले-बगल के गोतिया क’ देने हउ ! कनियाँ के अकेला रात के न छोड़ै ! आ एगो जड़ी देलकै आ कहलकै एकरा जंतर बना के पेन्हा दही । आब हमरा शरणमे आ गेले, ठीक हो जतौ । हम तोहर सभ मनकामना पूरा क’ देबौ !’
– ‘अच्छा !’ हमरा एहि युगमे एहन सोच पर तामस भेल । तथापि रुचि लेलौं ।
– ‘हँ सर, देखियौ !
– ‘आ अंगरेजी डाक्टर स’ नै देखयलह ? ई बाबा-ताबा की करतह !’
– ‘से ओहो करै छिऐ की सर ! दवाइ खाइ हइ !’
– ‘अच्छा !’ हमरा खुशी भेल ।
– ‘सर !’
– ‘हँ हँ, कहह ने !’
– ‘आब जेकरा से हो जाय, धरि बच्चा हो जाय !’
– हूँ, सेहो ठीके !’
– ‘देखियौ, लच्छन-करम त’ ठीके जा रहल हइ, तब दुरगा महरानी के जे इच्छा…’
– ‘हँ, ठीके की !’

हम एहिमे अधिक की कहितिऐ । मुदा वएह लजाइत आगूक गीरह फोललक- ‘असलमे बाबा हमरा रोजे कनियाँ साथे रातमे सूते के कहले हइ क’ !’
आ कहैत चुप भ’ गेल । बहिं, हमर तँ दिमागे सुन्न ! ओकर शतरंजी चालिमे जेना मात खा गेलौं । वार्धक्य नै सोझा अबैत तँ किछु खोध-बेध करितिऐ । मुदा चुप्पे रहि गेलौं ।
आब तँ तकरो कत्ता मास भ’ गेलै । मुदा ओकर आदति नै छुटलै । केहनो जरूरी भेल,ओ आन ठाम नाइट-हॉल्ट नै कयलक । हमहू्ँ फेर एहि विषयकेँ अधिक नै घिचलौं । दू-चारि अनुभवी कहलनि- ‘सभ ड्राइवर अहिना करै छै ! अहाँ त’ भागमंत छी, पाँच वर्ष स’ टिकल अछि !’
ओना ड्यूटीमे जे करैत हो, धरि अछि बड़ मनलग्गू ! गपमे बहुत तेज । चुप रहत, चुप रहत, मुदा बाजत तँ अचंभित क’ देत ।
एकबेरक घटना अछि । रामनवमी आब’वला रहै । जतय-ततय अखबार, टीवी, फेसबुक पर एहि मादे रंग-रंगक न्यूज पढ़ी-देखी । एकदिन ड्यूटी जाइत काल रीझनकेँ पूछि देलिऐ- ‘रीझन !’

– ‘हँ सर !’
– ‘एखन त’ गाममे खूब गहमागहमी हयतह !’
– ‘कथी ला सर ?’
– ‘रामनवमी आब’वला छै ने !’
– ‘न: !’
– ‘से किएक !’
– ‘हमरा गाँमे मीयाँ नै न हइ सर !’
हमर तँ बकारे बंद भ’ गेल ! हम सोच’ लागल रही…
मुदा रीझन लेल धनि सन । ओ गाड़ीक स्पीड बढ़ौने जा रहल छल । टोक पर कम कयलक । पूर्वे जकाँ नीक नै लगलै । मुदा की करितय !
आब ओ हेहर भ’ गेल अछि । हमहू्ँ अपन थेथरपनीसँ तंग आबि गेल छी । रिझनकेँ रिझायब संभव नै अछि । ओ अपन मनक मतंग अछि।

एकदिन कहलक- ‘अहाँ के आफिसमे जे फुलेस्सर हय, चपरासी !’
– ‘हँ, से की ?’
– ऊ नै सुधरत !’
– ‘से किएक ?’
– ‘ऊ पूरा कायथ हय !’
– ‘हइ, ओ त’ मलाह छै !’
– ‘नै सर, ऊ पूरा कायथ हय !’
– ‘की कहै छें !’
– ‘हँ, ठीके कहै छी ! कायथ पहिले खायत, फेन घर जायत ! ऊहे हाल ओकर हइ । जे कमाइ हइ, सब बजारेमे उड़ा दै हइ !’
हम बिहुँसलौं । उत्तर नै फुड़ायल । वएह फेर बाजल- ‘ऊहो की करतै !’
– ‘से की ?’
– ‘बाप पूरा भुइंहार हइ !’
– ‘अच्छा !’
– ‘हँ त’ ! हरदम पाइ-पाइ करैत रहै हइ । खाली जमीने तकैत घुरै हइ । कहीं उखरल, कि पहुँच गेल ! आ से फुलेस्सर के नै पसंद ।’
– ‘किएक ?’
– ‘ओकर कहनाम हइ जे लोक ऐ पिरथी पर की ले के आयल हय, आ की ले के जायत ! हमरा बाप के कपारमे भोग लिखले नै हइ !’
– ‘से त’ ठीके !’ हमहूँ हँ-मे-हँ मिलौलिऐ ।
फेर ओ चुप भ’ गेल । आँफिस पहुँचि गेल रही ।

से जहिया-जहिया रीझन छुट्टी मारि दैत अछि, अथवा हमरे आँफिसमे छुट्टी रहैत अछि , मोन खाली-खाली लाग’ लगैत अछि । कतेक टीवी देखू, कि अखबारे पढू । धियापुता आकि पत्नीये संग कते की बतियाउ । बुझू जे चाह पिबैत-पिबैत पेट डम्फ भ’ जाइत अछि।
से ओहि दिन, दिन लगैत अछि । लगैत की अछि, विश्वास अटल भ’ जाइत अछि जे रीझन, जीवनकेँ रिझाब’ जनैत अछि।
एकदिन हमहीं गप करबाक मूडमे रही, पुछलिऐ- ‘अय रौ रीझन !’
– ‘की सर !’
– ‘तों सब ककरा भोंट दै छहक ?’
– ‘आर केकरा देबै, लालू जादव के !’
– ‘किएक, जाति छह तें ?’
– ‘दुत !’
– ‘मतलब ?’
– ‘ऊ गुआर थोड़के रहलै !’
– ‘तब ?’
– ‘जलम भेल रहइ ।’
– ‘माने!’
– ‘ऊ आब गुआर से अल्लग हो गेलै !
– ‘तखन ?’
– ‘ऊ बड़का लोक हो गेलै !’
– ‘त’ की भेलै ?’
– ‘बड़का लोक के कोनो की जात होइत हइ । ओकर जात अल्लग होइत हइ !’
– ‘कोन ?’
– ‘ऊ सब सोआरथ-जात होइत हइ ! जेन्नी जेकरा से सोआरथ भेलै तेन्नी…’
– ‘से ठीके कहलह ।’
– ‘अच्छा, अहीं बोलू !’
– ‘की ?’
– ‘रामविलास दुसाध हइ ? कोई कहतै !’
हम चुप । की उत्तर दितिऐ !

बेसी काल एकर तर्क पर एहिना चुप भ’ जाइ छी । तैयो पुछलिऐ- ‘तखन भोंट किए दै छही ?’
– ‘जात से बहरा नै न रह सकै छिऐ ! बेर हइ, बखत हइ । फेन त …’
एकदिन गाम गेल रही । क्रिकेट टुर्नामेंटमे । धियापुता सभ बजौने छल । ओना हमरा एकोरती नै सोहाइए । हमरा फुटबॉल नीक लगैए । ई दिनकट्टू बुझाइए । तथापि गेलौं ।रस्तामे रीझन पुछलक – ‘सर यो !’
– ‘की ?’
– ‘किरकेट अहाँ बुझै छिऐ ? हम त’ कुच्छो नै बुझै छिऐ ! लेकिन जब बैट से बॉल के उड़़बै हइ तँ बड़ निम्मन लगै हय ! अपनो एहिना उड़े लगै हय मोन !…’
– ‘सौ टकाक गप्प कहलह ! हमरो सएह होइत रहैए ।’
– ‘लेकिन हमरा इंडिया-पाकिस्तान के मैच खूब निम्मन लगै हय!’
– ‘किए ?’
– ‘देस के बात हइ न !’
– ‘देश के, आकि हिंदू-मुस्लमान के !’
ओ हमरा दिस उनटि तकलक । फेर रोड पर नजरि ल’ गेल । फेर बाजल- ‘दुन्नू बात हइ !’
– ‘की ?’
– ‘ईड़ के बात हो जाइ हइ !’
– ‘माने ?’
– ‘हमर एगो मीयाँ दोस हय । नईम । बड़े निम्मन । अपन भाइयो सब से बिसबासू । हमरा लागी मरे-कटे ला बुझू जे तैयार । हमहू्ँ रहै छिऐ तहिनाती । लेकिन साला मैचमे आ के …’
– ‘की से ?’
– ‘छोड़ू । मैच के बाद फेन दुनू एक्के । ई सब जीवन के रमन-चमन हइ !’
से ,जखन घुरैत रही तँ कहलक- ‘ऊ जे सब के इनाम दैत रहै…’
– ‘हँ हँ, क्रिकेटमे ने ! निर्मला देवी । हमर पंचायत के मुखियानि छथि ओ…’
– ‘हूँ, हम पता लगैली !’
– ‘की ?’
– ‘ऊ जात के मुसहरनी हइ !’
– त’ की भ’ गेलै हओ ! हमर पंचायत रिजर्व छै ने ।’
– ‘ओह, हम से नै कहली सर ! ऊ आब मुसहरनी लगै हइ ?’
– ‘हँ, से त’…’
– ‘सेहे कहे चाहैत रही ! पद, पाइ आ ओहदा से जात बनै-बिगड़ै हइ ।’
– ‘हूँ, से त’ ठीके कहलह…’
– ‘हमर त’ चच्चे एक नम्मर के बनियाँ हइ !’
– ‘की भेलह से !’
– ‘नै, बिजनिस करै हइ ! छड़-गिट्टी-बालू के । सुतरल त’ जमीन के दलालीयो क’ लेलक !’
– ‘अच्छा !’
– ‘हँ त’ ! ऊ बड़का बनियाँ, बिरला-टाटा-अम्बानी हो गेलै ! आब त’ हमरा आर के टेरबो नै करैत हबे !…’
अपनो रीझन रोजे कपार पर सिनुरक ठोप करैत अछि । एकदिन ओहिना बजा गेल रहय- ‘की रीझन !’
– ‘हँ सर !’
– ‘ई रोज जे ठोप करै छहक…’
– ‘हँ सर ?’
– ‘पूजो-पाठ करै छहक, आकि…’
– ‘नै सर, बिना लहयले आ दुरगा महरानी के पानी देले अनजलो नै करै छिऐ !’
– ‘तखन त’ हओ, असली ब्राह्मण तोंहीं भेलह !’
– ‘से जे कहियौ सर । करम त’ तेहनाही करै छिऐ !’
फेर चुप भ’ गेल । चेहरा पर गांभीर्य सन भाव आबि गेलै । कनी काल चुप रहि कहलक- ‘एगो बात कहू सर ?’
– ‘हँ हँ, की से !’
– ‘बाबू बहुत परियास केलकै हमरा पढ़बे लागी ! पेड़ पर उल्टा लटका दै ! कच्चा छौंकी से छड़पिटा दै । लेकिन करममे त’ लिखल रहै इहे डरेबरी…’
– ‘आब हम की कहियौ…’
– ‘नै, ओहिनाती कहली । पर हमरा एक बात के बड़ी तकलीफ होइत रहै हय…’
– ‘की से !’
– ‘हमर घर रजपूत टोलामे हइ न…’
– ‘हँ, से त’ बुझले अछि ।’
– ‘हमर एगो दोस हय बसंत सिंघ !’
– ‘हूँ !’
– ‘हमर संगतमे ऊहो बेरबाद हो गेलै…’
– ‘की भेलै ओकरा !’
– ‘नै पढ़ सकलै । जिमदार पलिबार के रहै । महराज दरभंगा नाहित त’ नै, तैयो गाँ-घरमे नै होइ हइ…’
– ‘हँ हँ, धनीक !’
– ‘हँ, लेकिन खनदानी !’
– ‘से भेलह की ! किएक तकलीफ छह ?’
– ‘ऊहो मूरुख रह गेलै । जथा-जमीन पोछ के खा गेलै । दारू जे न करै ! फल हइ जे आइ-काल खबासी क’ के गुजर क’ रहल हय !’
– ‘अच्छा ! कहाँ ?’
– ‘ऊ गुमती नियर जे सुरेश कापड़ हइ, डाकटर…’
– ‘हँ हँ !’
– ‘ओकरे घर के खबास हय !…’

हम तँ बकर-बकर ओकर मुँह तकैत रहि गेलिऐ । की कहितिऐ ! रीझन तँ आजुक सत्यक दर्शन करा रहल रहय ! हेराय लगलौं…
तखने रीझनक आवाज पर भक् टूटल ।
– ‘सुनू न सर !’
– ‘हँ हँ, कहह ने !’
– ‘एगो बात पूछू ?’
– ‘पूछह ने !’
– ‘ऊ जे अहाँ हियाँ अबै छथिन !…’
– ‘के ?’
– ‘ऊहे, किदन त’ नाम हइन…’
– ‘मेहता जी त’ ने हओ !’
– ‘हँ हँ, ऊहे !’
– ‘से की ?’
– ‘अहाँ हुनका पंडी जी कथी ला बोलै छिऐ ?’
हम चुप । की उत्तर दितिऐ । पुनः वएह बाजल- ‘ऊ त’ आब सब्जी आर नै न उपज’बै छथिन !’
– ‘एह, तहूँ हद करै छह ! आब ओ से सभ किएक करता…’

हमरा भेल, रीझन बहुत जेन्युइन सोचक व्यक्ति अछि । पढ़ल-लिखल नै अछि । तथापि पढ़ल-लिखलसँ अधिक स्पष्ट अछि ।
मुदा परसू जे गप, संयोगे कानमे पड़ल आ आँखिसँ देखल, हम असंतुलित सन भ’ गेलौं ! रीझनकेँ अपन ड्राइवर दोस्त सरबन पासवानसँ भेंट भ’ गेलै । पानक दोकान पर ठाढ़ रहै । इनकमटैक्स चौराहा पर । ओ सहसा गाड़ी रोकि देलक । आ कहलक- ‘सर, एक मिलिट !’ आ गाड़ीसँ उतरि गेल ।
भीषण गरमीक कारणें एसी ऑन रहै । तें ओ गाड़़ीकेँ न्यूट्रल पर राखि उतरल रहय । हम से सोह नै कयलिऐ । बंद शीशाकेँ कने घसका देलिऐ ।

दूनू एक ठाम होइते एक-दोसरसँ गला मिलौलक । हमरा रीझनकेँ सरबने ताकि क’ देने रहय । ओ हमर एक सहकर्मीक ड्राइवर छल । आब हमर बदली भ’ गेल अछि, तें एखन केर स्थितिसँ अनभिज्ञ छलौं ।
सरबन हमरा ओतहिसँ प्रणाम कयलक । फेर दूनू गप कर’ लागल । फेर दोकानसँ दूटा पुड़िया लेलक । फेर फाड़ि क’ पूरा-पूरा मुँहमे देलक । दूनू । फेर- ‘तब दोस !’ रीझन जेना आज्ञा लेबाक मुद्रामे कहलकै ।
– ‘की ?’
– ‘सुन न, चलै छियौ ! फेन गप होतै । एखनी सर के ऑफिस के लेट हो जतै !…’
फेर कनी निकट सटि- ‘आ आइ कुछ टको, एडभांस के नाम पर घीचे के हय !’
– ‘नाम पर ! घीचे के हय ! माने ?’
– ‘माने कुच्छो नै । फेन मिलबौ न, तखन पूरा बोलबौ !
सरबनक आँखि उनरि गेलै । रीझन सेहो बिहुँसल । फेर की आभास भेलै, की नै, गपकेँ बदललक- ‘अभी कहाँ छे ?’
– ‘आर कहाँ रहब, ओही सर साथे !’
– ‘केहन-की ?’
– ‘जनिते छही,ऊ बाभन नै न हइ, बाभन के नँगरी हइ…’
– ‘अरे ऊ बाभन थोड़के हउ !’
– ‘तब ?’
– ‘ऊ त’ सोइत हउ !’
– ‘दूनू एक्के हइ ! हमरा त’ कखिनतो सोइत नाहित बुरबक, त’ कखिनतो तेली नाहित मरकट लगतौ ! पूरा मक्खीचूस !’
– ‘हूँ, सेहो ठीके कहै छे ! रस्सी जर गेलै लेकिन…’
– ‘तोरे निम्मन हउ !’
– ‘हँ, निम्मने कहे के चाही…’
– ‘एखनी केहन-की !…’
– ‘ठीके !’
– ‘माने ! ऊहो त’ बाभने हइ न !’
– ‘हइ त’, लेकिन…’
– ‘लेकिन !’
– ‘अकल से चलता…’
– ‘से की ?’
– ‘पूरा-पूरी सोलकन्ह हइ !…’
हम चट द’ शीशा बन्द क’ लेलौं । रीझन आयल । आ गाड़ी स्टार्ट करैत चलि पड़ल…

 

कथाकार परिचय

विभूति आनन्द

कैलाश कुमार ठाकुर

कैलाश कुमार ठाकुर [Kailash Kumar Thakur] जी आइ लभ मिथिला डट कमके प्रधान सम्पादक छथि। म्यूजिक मैथिली एपके संस्थापक सदस्य सेहो छथि। Kailash Kumar Thakur is Chef Editor of ilovemithila.com email - [email protected], +9779827625706

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