
मैथिली भाषा आ वर्त्तनीक मानकीकरण पर, एखन भांति-भांतिक विमर्श चलि रहल अछि आ अनेक दृष्टिकोणें मन्तव्य उपस्थापित कयल जा रहल अछि। ताहि मे मैथिलीक भाषाशास्त्रक गोटपगरे विद्वद्जन अपन आलेख प्रस्तुत केलनि अछि, अथवा भाग लेलनि अछि, अथवा आजुक तिथि मे लेखनी-सक्रियता प्रदर्शित क’ रहल छथि।
अधिकतर त’ मैथिली भाषा आ साहित्यक क्षेत्र मे सक्रिय मैथिलीस्ट आ साहित्यिक संवर्गे द्वारा, अथवा गैर-साहित्यिक बुद्धिजीवी द्वारा सोसल मीडिया पर, अथवा आलेख/मन्तव्य द्वारा चिन्ता व्यक्त कयल जा रहल अछि, विमर्श कयल जा रहल अछि। भाषाविद् लोकनि एखन धरि, मैथिलीक विलुप्तिक भविष्यवाणी-आधारित आलेख प्रस्तुत केलनि अछि (आ. पं.गोविन्द झा आ डा. नचिकेता : संधान-प्रसंग)। ताहि मे, आ.पं. गोविन्द झा मैथिलीक अवसानक अपन ‘भविष्यवाणी’ के, मौखिक घोषणा द्वारा आपस ल’ चुकल छथि। तथापि, भाषा सम्बन्धी हुनकर संक्षिप्त विचार कहियो-काल अबैत रहैत अछि। भाषा आ वर्त्तनी-विमर्शक प्रसंग मे डा. रामावतार यादवक एकटा आलेख (मुख्य मैथिली बनाम निम्नवर्गीय मैथिलीक तुलनात्मक वर्त्तनीक उपस्थापन) कल्याणी फाउन्डेशनक तत्कालीन शोध पत्रिका ‘जिज्ञासा’क एक अंक मे आयल छल।
डा. नचिकेताक भाषा-विमर्शक ‘संधान’मे प्रकाशित उक्त आलेख मे ‘डिग्लोसिया’ (कोनो भाषाक अर्थात् मैथिलीयोक, ‘द्वैभाषिक स्थिति’) आ मिथिलाक सब जाति-वर्गक, मुख्य मैथिली मे अन्तर्भुक्ति आ समावेशक चिन्ता-चिन्तन विश्लेषित भेल छल।
‘डिग्लोसिया’ सब भारतीय भाषाक लेल (हिन्दी समेत) एकहि रंग चिन्ताक विषय थिक। कारण, सरकारे अपन ‘त्रिभाषा फार्मूला’ स’ एकरा प्रश्रय द’ रहल अछि, बहुभाषिक छात्रक उत्पादन लेल। से चिन्तनीय परिस्थिति, मैथिलीयोक समक्ष, आने भाषा जकां अछि, जे, मैथिली बाजयबला लोकक जनसंख्या, दोसर भाषाक आक्रमण द्वारा (मिथिला मे हिन्दी) घटाओल जाइत अछि, जखनकि मैथिलीभाषीयो जनता मे जनसंख्या-विस्फोट आने भाषा-भाषी जकां भ’ रहल अछि।
तहिना ‘मुख्य मैथिली’ मे, मिथिलाक उच्च जाति/वर्गक अतिरिक्त, शेष अन्य सब जाति-वर्गक ‘भाषिक अन्तर्भुक्तिक’ अभियानक परिस्थिति, एखनो उत्साहजनक नहिं अछि, डा. नचिकेताक उक्त आलेखक, अनेक दशक बीति गेलाक बादो!
डा. सुभाष चन्द्र यादवक ‘गुलो'(उपन्यास) आधारित ‘पचपनियां मैथिली’क विमर्श मे, ‘मुख्य मैथिलीक’ ‘लेखन-शैली’ आ ‘बोली’-संस्करणक मैथिलीक ‘वर्त्तनी'(डा. सुभाष चन्द्र यादवक शब्द मे ‘लेखन- शैली’) पर नीक विमर्श भेल।
तकर अलावें, कहियो रमानन्द झा ‘रमण’क आलेख मे, डा. अशोक अविचलक गोटेक आलेख मे, डा. रामचैतन्य धीरजक पोथी आ डा. अरुणाभ सौरभक गोटपगरा आलेख मे भाषा-विमर्श देखायल अछि। मैथिली मे भाषा-समस्या आ भाषिक विकृतिक अनुपात मे, अभगदशाक तुलना मे, आलेखमय विमर्श, चिन्तनीय रुपें कम लिखा रहल अछि।
संवाद के, विवाद मे बदलि जेबाक कारणें, ज्ञानीजन सायास परहेज करैत छथि। कारण, ‘वाद-विवाद-संवाद’ एतय, प्राय: नकारात्मक मानल जाइत अछि। एहना स्थिति मे, भाषा-विमर्श सामान्यत: मैथिलीस्ट, आन क्षेत्रक बुद्धिजीवी आ सोसल मीडियाजनक हाथ मे चलि गेल अछि, सेहो स्वाभाविके अछि।
आइ पत्र-पत्रिका स’ बेसी विमर्श तं सोसले मीडिया पर होइत अछि, जे प्राय: बेसीकाल ‘त्वंचाहंचे’ मे बदलि जाइत अछि, आ मूल विषय, निष्कर्ष धरि नहिं पहुंचि पबैत अछि। अथवा पहुंचितो अछि, त’ फेर हवा मे उड़ि जाइत अछि। से परिस्थिति मैथिली भाषाक आ वर्त्तनीक मानकीकरणपरक विमर्श के, बहुत भ्रमित क’ देलक अछि।
मुख्य मैथिली भाषाक मानकीकरणक कल्पनो करब, भाषाक कंठ मोकि क’ हत्या करब थिक। भाषाक नैसर्गिक प्रवाह आ विकास के, मानकीकरण बाधित करैत अछि, कारण, ‘बहति पानि निर्मला’!
मैथिली ‘भाषा’क मानकीकरणक कोनो बात, ने त’ आचार्य रमानाथ झा केलनि, आ ने तकर उपेक्षा बाबू भोलालाल दास केलनि। आचार्य रमानाथ झा ‘मुख्य मैथिलीक’ ‘लेखन शैली’ (वर्त्तनीक) मानकीकरणक जरूरति बतौलनि, जकरा ताहि युग मे भोलालाल दास ‘अनावश्यक’ कहलनि। बाबू भोलालाल दासक ई सोच, जे ‘कालान्तर मे से स्वत: ठीक भ’ जायत’,उचित नहिं छल। वस्तुत: मानकीकरण वर्त्तनीएक हेबाको चाही, भाषाक नहि। हम भाषाक मानकीकरण के, आत्महंता-प्रयास मानैत छी।
डा.सुभाष चन्द्र यादव त’ युवा लेखक दिलीप कुमार झा द्वारा लेल गेल एक साक्षात्कार मे वर्त्तनीयो नहिं, ‘लेखन शैलीक अन्तर्गत, उच्चारणक ध्वन्यात्मकता’- मात्र के, मात्र ‘सर्वसमावेशी’ बनाब’ चाहैत छथि, मानकीकरण तकरो नहिं करय चाहैत छथि।कोनो तरहक मानकीकरण के (अपितु ‘मानकीकरण’ शब्दे के) त’ डा. यादव, ओरे स’ खारिज करैत छथि आ फेर भाया ‘लेखन शैली’/ ‘फोनेटिक्स'(ध्वन्यात्मकता), ओ सर्वसमावेशीकरण प्रक्रियाक अर्थात् , प्रकारान्तर स’ ‘वर्त्तनीक मानकीकरणे’ के समर्थन करैत छथि।
वस्तुत: ‘लेखन शैली’क आ उच्चारणक ताही ध्वन्यात्मकता’ (‘एकाउस्टिक्स’ के आधार पर शब्दक ‘फोनेटिक्स’) के हम ‘वर्त्तनी’ मानैत छी। आ सैह सब दिन स’ ‘वर्त्तनी’क अर्थो रहल अछि। तहिना हुनकर ‘सर्वसमावेशीकरणे’, मानकीकरण थिक अथवा मानकीकरणक सैह टा एकमात्र (सर्वसमावेशीकरण) उद्देश्ये थिक। बिना सर्वसमावेशीकरणक, बिना ‘निम्नवर्गीय टोन’ के ‘वर्त्तनी’ मे शामिल केने, मिथिलाक सब वर्ग-जातिक, ‘मुख्य मैथिली’ मे, ‘भाषिक अन्तर्भुक्तिकरण- प्रक्रिया’ संभवे नहिं अछि।
से यैह तीनू भाषाशास्त्रीय अवधारणा थिक (निम्नवर्गीय ‘टोन’क मुख्य मैथिलीक वर्त्तनी मे सर्वसमावेशीकरण-वर्त्तनीक जनोन्मुखीकरण आ माटि-उन्मुखीकरण / मानकीकरण आ निम्नवर्गक आमजन मे अन्तर्भुक्तिकरण), जे तीनू भाषाशास्त्रीय प्रक्रिया मुख्य मैथिलीक लेल कहियो संजीवनी भ’ सकैत अछि।
ई तीनू प्रक्रिये कहियो, मुख्य मैथिलीक आभिजात्य स्वरुप के परिवर्त्तित क’, ‘मुख्य मैथिली’ मे, ‘जनवादी आ जनोन्मुखी/माटिपानिमुखी भाषिक लोकस्वरुपक संस्थापना’ क’ सकैत अछि। से मुख्य मैथिली भाषा लेल अत्यावश्यक अछि। यैह तीनू अत्यावश्यक प्रक्रिया, कहियो मुख्य मैथिली के, तथाकथित ‘उच्चजातीय अभिजन परिधि’ स’ निकालि, ‘आमजनक’ संग जोड़ि सकत।
विचारल जाय, जे ई कतेक जरुरी काज थिक आ तकरा वर्त्तमान अराजक परिस्थितिक भरोसें, कोना छोड़ल जा ‘सकैछ’/’सकैत अछि’ ? तकर प्रयास कहियो नहिं कयल गेल, सेहो बात नहिं। डा. नचिकेताक सक्रिय सौजन्य स’, ‘सेन्ट्रल इन्स्टीच्यूट औफ लैंग्वेजेज’, मैसूर, मे, ‘मानकीकरण’ पर कार्यशाला आयोजितो भेल। मुदा, तकर परिणामक सूचना, निर्णय सबहक विस्तृत सूचना स’, आइयो मैथिली – संसार, सरकारी कारण स’, वंचित अछि। आन अनेक विडंबना आ दुर्भाग्यक संग, ईहो एकटा विडंबना थिक, मैथिलीक संग।
तकर उपरान्त, कोनो सरकारी अथवा गैर-सरकारी मैथिलीसेवी संस्थाक स्तर स’, सार्थक प्रयास नहिं भेल आइ धरि। सोसल मीडियाक विभिन्न मंच पर, मात्र विमर्श, बहस, नकारात्मक, हल्लुक आ भ्रमपूर्ण वाद-विवाद चलि रहल अछि। सार्थक संवाद अत्यल्पे भ’ रहल अछि। मुदा मैथिली मे, मैथिलीक बोली सबहक वर्त्तनीक मानकीकरणक सन्दर्भे, कल्पनातीत अछि।
भाषाशास्त्रक नियम, नियमक व्यावहारिकता आ बोली सबहक प्रारंभिक स्थिति, बोली (डायलेक्ट) सबहक बालपन साबित करैत अछि, जकर एखनहुं ने त’ अपन स्वतंत्र इतिहास, साहित्य वा व्याकरण आ भाषाशास्त्र अछि, ने अपन फराक क्षेत्र-व्यापकता, आ ने स्थानीयता-मुक्ति-प्रवृत्ति! सूर्यापुरी, मुसलमानी, खगड़िया-भागलपुरी, छिक्का-छिक्की, अंगिका, बज्जिका, निम्नवर्गीय/निम्नजातीय मैथिली, पचपनियां मैथिली, भाषाशास्त्रीय मूल्यांकनक हिसाबें, अइ सब बोलीक, एखन मैथिली नदीक छारनि वा ‘ट्रिब्यूटरी- नहरिबला’ स्थिति अछि।
तें मैथिली मुख्य भाषाक आ बोलीक मानकीकरण, एकर सबहक वर्त्तनी आ लेखन शैलीक नैसर्गिक विकासे के बाधित करत। एतेक रास आ ई सब बोली, मैथिली भाषाक निधि आ थाती थिक, जे मैथिली के अपन खांटी जमीनीपन स’ धनीक बनबैत अछि। तखन ई बूझब सर्वाधिक जरुरी अछि, जे अन्तत: ‘मुख्य मैथिलीक’ वर्त्तनीक आ लेखन शैलीक मानकीकरणक जरुरतिए किए अछि आ से कोन सीमा धरि जरुरी अछि?
पहिने ‘किए’बला पक्ष पर विचार करब उचित अछि।
आजुक ‘मुख्य मैथिली’, जे एखनहुं ब्राह्मणवादी आ पंचकोसी-दसकोसीक पुरातन संस्कारबला ‘अभिजात स्वरुप’ के अंगेजने अछि । आ बहुत रास पुरातनपंथी व्यक्ति आ प्राचीनतावादी लेखक, तकरे बना क’ राख’ चाहैत छथि। अपन मुख्य प्रारुप मे, ‘सर्वसमावेशी जनोन्मुखी चेतनाक समायोजन लेल’ छटपटा रहल अछि।
मुदा अनेकानेक वर्त्तनीक सह-अस्तित्व स’ उपजल अराजकता, आइयो, आ विगत अनेक दशक स’, कए पीढ़ीक युवा लेखकगण के फिरीशान करैत रहल अछि। आदिकालीन आ मध्यकालीन मैथिलीक वर्त्तनी के छोड़िये देल जाय, त’ आधुनिकयुगीन मैथिलीयो मे एखन धरि, ‘मिथिला मोद’क ‘वर्त्तनी’ किछु आरे छल।
तकर बादोक समय मे आ आइयो, आचार्य रमानाथ झाक वर्त्तनी, डा.सुभद्र झाक वर्त्तनी, पैघ वैयाकरण पं. दीनबन्धुझाक वर्त्तनी, पं.गोविन्द झाक वर्त्तनी, ‘मिथिला मिहिरक’/आ. सुमनजीक वर्त्तनी, ‘घर बाहर’/आ.रमानन्द झा ‘रमण’ केर वर्त्तनी, डा.सुभाष चन्द्र यादवक वर्त्तनी(‘पचपनियां मैथिली’), डा.रामावतार यादवक निम्नवर्गीय/ तथाकथित निम्नजातीय वर्त्तनी, एगारह तरहक वर्त्तनी, एक संग, आइयो चलि रहल अछि! ताहि सब वर्त्तनी मे अपन-अपन परिवर्त्तनक संग, अपन-अपन मनमानीक संग, नव लेखकगण लेखन-कार्य क’ रहल छथि, जाहि लेल, पूर्व स’ चलैत आबि रहल अराजकताक परंपरे, दोषी अछि।
आजुक नव आ आब पुरानो होइत लेखक लोकनि, की करताह? जा धरि कोनो संस्था भाषाशास्त्रीगणक, भाषावादीगणक, इच्छुक लेखकगणक कार्यशाला आ सम्मेलन आयोजित क’, ‘मानकीकरणक बिन्दु सब पर’ उचित विमर्शोपरान्त अन्तिम निर्णय नहिं लेत, ई अराजकता पीढ़ी- दर-पीढ़ी बढ़िते जायत। बढ़िते जा रहल अछि।
तर्क देल जा रहल अछि, जे ई समस्या अनेक भाषा मे अछि।तेलुगू मे सेहो अनेक वर्त्तनी/लेखन शैली, रहबाक उदाहरण देल जाइत अछि। ताहि स’ मैथिलीक भाषागत समाधान नहिं भ’ जाइत अछि। ओ ‘भाषायी यथास्थितिवाद’क पक्षपाती तर्क थिक, जखनकि ‘भाषायी यथार्थवाद’परक विश्लेषण परिस्थिति द्वारा अपेक्षित अछि।
अहां बहुत उदार होइ,त’ दू क्षेत्र के चिन्हित क’, दू टा वर्त्तनी के, सहज मानकीकृत क’ क’, सब जाति-वर्गक लेल समावेशीकरण करैत, ‘मुख्य मैथिली’क अन्तर्गत, वर्त्तनीक अंतिमीकरण क’ लिय’। ‘मुख्य मैथिली’क दू टा लेखन-शैलीक, दू टा प्रारुप त’ निर्धारित भ’ जायत।
डा. सुभद्र झा ‘मिथिला मिहिर’क वर्त्तनी स’ सहमत नहिं छलाह। हुनकर ‘नातिक पत्रक उत्तर’ धारावाहिक रूपेँ छपैत छल, त’ संपादकजी (सुधांशु शेखर चौधरी)क टिप्पणी छपैत छल जे, ‘लेखकक अनुरोधें, लेखकक वर्त्तनी, यथावत् राखल गेल अछि।’ अपन वर्त्तनी ल’ क’ डा.सुभद्र झा कतेक ‘औब्सेस्ड’ आ कट्टर छलाह।
आइ हमरा सब मे स’ क्यो ‘कयल’ लिखैत छी,क्यो ‘कएल’ आ क्यो ‘कैल’ लिखैत छी। तहिना ‘केओ, क्यो, कियो’, ‘जायब, जाएब, जैब’, ‘भ’, भऽ, भए, भा’ए’, ‘करैत छी, करै छी,’ ‘सकैत अछि’, ‘सकैछ’, आ ‘अनेक तरहक लेखन शैली’, अराजकतावादी हंगामा मचौने अछि। एहेन ‘भाषिक स्वेच्छाचारिताक’ विरुद्ध, क्यो व्यक्ति अथवा कोनो संस्था एकटा सार्थक आयोजन द्वारा, किच्छु समाधान आ सकारात्मक काज नहिं क’ पाबि रहल अछि। ने त’ साहित्य अकादेमी आ ने चेतना समिति, पटना!
तखन साहित्यकार त’ अइ समस्याक चलतें,’उद्धारक भाषाशास्त्रीक अवतारक प्रत्याशा मे’, साहित्य आ भाषिक लेखन ठप्प क’ क’, प्रतीक्षारत नहिं रहत। ओ पसरल अराजकता मध्य, अपना विवेक स’, लेखन करैत जा रहल अछि, मुदा तद्जन्य तनाव आ टीका-टिप्पणी के, ‘झेलैत’ आ बेमोन स’ बरदाश करैत। तकर नतीजा ई अछि जे, डा. सुभाष चन्द्र यादव अपन यात्रा-वृत्तांत-पोथी (रमता जोगी) मे ‘मुख्य मैथिली’ लिखैत छथि आ अपन ‘कथाभाखा’ मे, पात्र- परिवेश मे मौलिकता आ विश्वसनीयता आनबाक चलतें, ओइ वर्गक ‘पचपनियां मैथिली’ लिखैत छथि! तें, हुनकर ‘कथाभाखा’ ‘उपन्यासक भाखा’ के, ‘कट्टर आ जड़ भाषावादी समूह’ मोजर नहिं दैत अछि आ ‘मुख्य मैथिली’ के निम्नवर्गीय लोक ‘अपन भासा’ नहिं बुझैत अछि। मुदा लेखक सुभाषचन्द्र यादव के त’ दुनू लेखन- शैलीक, सक्षमता छनि।
तारानन्द वियोगी मात्र ‘मुख्य मैथिली’ मे लिखैत छथि आ बोली वा कोनोटा वर्त्तनीक झमेला स’ ओ ‘सायास परहेजी’ छथि। एहेन ओ असगर लेखक नहिं छथि। मैथिलीक घनेरो लेखक तहिना, कान मे तूर तेल द’ क’, निचैन भेल सूतल छथि। जेना राजस्थान मे बालुक अन्हड़-बिहाड़ि मे शुतुरमूर्ग मूड़ी बालुए मे गाड़ि क’ मानि लैत अछि, जे बालुक अन्हड़ आयले नहिं अछि। पं.गोविन्द झाक वर्त्तनी, वैयाकरण पं.दीनबन्धु झाक वर्त्तनीए सन अछि, कोनो विशेष प्रगतिशीलता नहिं आबि सकल, पं. जीक वर्त्तनी मे। जखनकि डा. सुभद्र झाक वर्त्तनी सेहो, आजुक समयक अनुकूल आ उपयुक्त नहिं अछि।
आब वर्त्तनी के ‘सोइतपुरा आ ‘सोती-लेन’क ‘अभिजातपन’ स’ बाहर निकलब/निकालब, एकदम्मे अपरिहार्य भ’ गेल अछि। ‘नहिं’ लिखू, कि ‘नै’ लिखू, कि ‘नइ’ लिखू…..? ‘छैक’ जनसामान्य नहिं ‘बजैत अछि’/’बजैए’। ‘सब’ (‘सभ’ नहिं) आब ‘छै’ बजैए। ‘जखन तखन’ आब साहित्ये टा मे, साहित्यकारक मुंहें टा मे, रहि गेल अछि। आम जनमानस मे, ‘जहन तहन’ भ’ गेल अछि! आब त’ ओइ नामक पत्रिका सेहो बन्न भ’ गेल अछि।
प्रयोगातीत आ कालातीत जे भ’ गेल,तकरा ‘किए’/ ‘किऐक’/ ‘किअए’, मोटरी बना क’ ऊघैत रहू, ‘जखनकि’/ ‘जहनकि’ समकालीन काल-प्रवाहक जीवन-धारा आ साहित्यक धारा के चीन्हब, साहित्यकारक लेल, लेखनक पहिल शर्त्त ‘थिक’/’छी’?
शब्दक अर्थ-विपर्यय/अर्थान्तरन्यास/शब्दरुप- परिवर्त्तन आ स्वरुप
विकास भाषाशास्त्र मे, प्रवृत्तिएं, उदार, प्रगतिशील आ कालप्रवाह के मोजर देनिहार भाषाशास्त्री,सदा शब्द-निर्माण मे, माटि-उन्मुखी प्रवृत्ति के, भाषाशास्त्रक पोथी-गछाड़क अपेक्षा, प्राथमिकता ‘दै’/’दैत’ छथि, जखनकि कट्टर शब्दशास्त्री, ओइ शब्द आ स्थापित अर्थ, ‘दुनूक अवसानक हेतु’ बनैत छथि। कारण, ओ शब्दक जनोन्मुखी रुप-परिवर्त्तन आ अर्थान्तरन्यासक प्रक्रिया के ल’ क’, उदारमना नहि होइत छथि। एहेन जड़ भाषाशास्त्री, लोकभाखा आ प्रगतिशील भाषाशास्त्र, दुनूक अपकारे करैत छथि। तें, शब्दक जमीनोन्मुखी अर्थान्तरन्यास आ अर्थ-विपर्यय-प्रक्रियाक नैसर्गिकता मे, ‘भाषाशास्त्रीय जड़ता’क हस्तक्षेप आब त’ किन्नहुं नहिं हेबाक चाही।
मुदा एत’ त’ भांति- भांतिक जड़ताक परंपरे, मिथिला समाजक ‘कएक युग मे निबद्ध’ भ’ गेल ‘अछि’/’ऐछ’! मैथिलीक साहित्यकारो आब, ‘कें’ आ ‘सं’ खाली लिखिते छथि, अपना घर-समाज मे बजैत नहिं छथि। आन आमजन त’ बजितो नहि छथि।
मुख्य मैथिलीक वर्त्तनीक मानकीकरण ‘नहिं’/’नै’ हेबाक कारणें, ई सब अराजकता स’, कए पीढ़ीक नव लेखक फिरीशान भेलाह अछि, से पूर्वहिं कहि चुकल छी। ‘अभिजात लेखन-वाचन-शैली’ के, कनहा पर ऊघैत आ अनेरो अपस्यांत होइत छी हम सब !(?)
मैथिली के प्राचीन आ जड़ भाषाशास्त्रक गछाड़ स’ मुक्त क’ क’, माटिपानिमुखी बनायब जरुरी अछि। जिनका ‘पारंपरिक स्वरुप’ पसिन्न छनि, से हुनकर प्राथमिकता! ओ जानथि!मैथिली भाषाक प्रगतिशील ‘युगक यथार्थ’, हुनको स’ एकदिन हिसाब मांगत। शब्दक अर्थ-विपर्यय, अर्थान्तरन्यास, आ स्वरूप-परिवर्त्तन, होइत रहैत अछि। आ से एकटा शाश्वत-निरंतर शब्द-निर्माण- प्रक्रिया, भाषा-प्रक्रिया, व्याकरण-प्रक्रिया थिक।
व्याकरण आ भाषाशास्त्र काल-प्रवाहक समानान्तर चलैत रहैत अछि। कारण, परिवर्तन सृष्टिक नियम थिक, से जीवनक सभ क्षेत्र पर लागू होइत अछि। अन्यथा, प्रथम वैयाकरण पाणीनिक ‘अष्टाध्यायी व्याकरण’ पर, पत़ंजलि के टीका ‘महाभाष्य’ करबाक/लिखबाक, की जरूरति छलनि? वस्तुत: से, पतंजलिक समयक मांग छल, टीकाक माध्यमें, व्याकरणात्मक परिवर्तनक, से ओ बुझलनि आ केलनि। माटि परहक शब्द-निर्माणक सैह प्रक्रिया आ ताही काज मे शेक्सपियर, जयशंकर प्रसाद, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र अपन-अपन महान् शब्द-संधान-योगदान केलनि, जाहि जनोपयोगी शब्द-प्रयोग आ परिवर्तन के, हिन्दी-अंग्रेजी व्याकरण आ भाषाशास्त्र,बाद मे ‘मोजगरा’/’मोजर’ देलक!
प्रयोगकर्त्ता अपन दिमाग मे, मोजर भेटबाक चिन्ता नहि रखैत अछि। माटि परहक शब्दक परिवर्तित स्वरुप के, व्याकरण- शब्दकोषक शब्दरुप पर, बेसी प्राथमिकता, प्रगतिशील साहित्यकार दैत छथि आ जड़ विद्वान सामान्यतः नहि दैत छथि। ईहो एकटा अन्तर होइत छै, सर्जक आ विद्वान मे। लेखक माटि पकड़ि क’ चलैत अछि आ ‘धरतीपकड़’ होइत अछि, मुदा विद्वान व्याकरणक नियम स’ बन्हा क’ चलैत छथि आ ‘शास्त्रीय’ होइत छथि।
साहित्यक निर्माणक संग-संग, भाषा-व्याकरण- भाषाशास्त्रक, विकास-प्रवाह चलैत रहैत छै। कट्टर वैयाकरण अइ परिवर्त्तन आ विकास के, ‘व्याकरणक विनाश’ कहैत छथि, से कोनो आइए नहि भेल अछि! एकटा उदाहरण स’ हम सब ई बात बूझी जे, अमीर खुसरोक ‘हिन्दवी’ किछु आर छल, भारतेंदुक ‘खड़ी बोली’ किछु आर, आ ‘आजुक हिन्दी’, किछु आर अछि। आजुक जे वैयाकरण ई बात नहि बुझताह, से अपने पर कुठाराघात करताह।
वैयाकरणी आ भाषाशास्त्रीय काल-प्रवाही विकास-क्रम, ककरो रोकला स’ नहि रूकि सकैत अछि। चन्दा झाक मैथिलीक स्वरूप किछु आर छल, ‘मिथिला मोद’क मैथिलीक स्वरुप किछु आर, ‘मिथिला मिहिर’क किछु आर,आ आजुक, किछु आर अछि।
‘अन्दाजीफिकेशन’,’चलेबुल’,थेथरोलौजी आ ‘शंकरामाइसिटिन’, ‘शंकर बूटी’ (भांगक नव आ ग्रामीण नाम) सन शब्द के, कट्टर भाषाशास्त्री जल्दी स्वीकार नहिं करताह। मुदा लेखक लिखि क’ चलि जेताह, जकरा कहियो भेटतै मोजर, कोनो उदार भाषाशास्त्री द्वारा। कारण, लेखन-कार्य, खाली वर्त्तमाने काल आ वर्त्तमानेक पाठक लेल, नहिं कयल जाइत अछि।
कट्टर वैयाकरण, व्याकरणक विकास मे कोनो योगदान नहि क’ पबैत छथि। ओ माटि पर होइत परिवर्त्तनक संज्ञान नहि ल’ पबैत छथि, अपन शास्त्रीय गछाड़ आ बन्धन-मोहक चलतें। तें, सही लेखक ‘अपन माटि’ दिस उन्मुख हेबे करत, मुदा अपन वैयाकरण पुरुखा के धन्यवाद द’ क’, आदरक संग! ‘बाबा वाक्यम् प्रमाणम्’, पौत्रक सहमते भेला पर उचित अछि। अन्यथा, ‘बाबा दंडोत, बच्चा जय सियाराम!’ कारण, ‘वादे-वादे जायते तत्वबोध:’….. आ तैओ जे ‘मां’क बजाय ‘मा’क उपयोग आ लेखन करथि, तिनका सेहो स्वतंत्रता छन्हिएं! कारण, साहित्यक सर्वप्रथम संदेश, अनकर अभिव्यक्ति के स्वतंत्रता देबे ‘थिक’/’छी’।
प्रख्यात भाषाशास्त्री आ.पं. गोविन्द झाक कहब छनि, जे कोनो रचना मे ८० % तद्भव शब्द हेबाक चाही। तकरा संग,१० % हिन्दी, आ १० % अंग्रेजी शब्द-आधारित मैथिली बजला आ लिखला स’, अनुवादकगण के अनुवाद मे सुविधा हेतनि; आन भाषा-भाषी के सेहो मैथिली बुझबा मे सुविधा हेतनि, आन भाषा मे अनूदित भ’ क’ जेबाक महत्वाकांक्षी लेखकगण के लिलसा सेहो पूर हेतनि आ एकटा नव भाषा ‘मैथिहिंगरेजी’क विकास सेहो हैत!
मुदा हेराइत खांटी मैथिली शब्दक संरक्षण तखन फेर कहियो कोनो पं. गोविन्द झा के, अपन शब्दकोषे मे करय पड़तनि! त’ की शब्दकोषे टा मे शब्दक संरक्षण हेबाक चाही, साहित्य-लेखन आ भाषिक- लेखन मे नहिं? ता धरि की, खांटी जमीनी शब्द के, ‘ठेठी’ कहि क’ गाड़ि पढ़ल जाय? अइ स’ सहमत ‘हैब/होयब’ असंभव अछि, तें सादर असहमति अछि! प्रयोगातीत होइत, हेराइत खांटी जमीनी शब्दक, अपन लेखन मे संरक्षण, लेखनक एकटा महत्वपूर्ण उद्देश्य थिक!
भाखा-सेवा आ साहित्य सेवा मे, शब्द-सेवाक अत्यधिक महत्व अछि। खांटी जमीनी शब्द, खाली भविष्यक शब्दकोषे मे रहय, हमरा-अहांक साहित्य मे नहि रहय, वा तत्सम के बाद सोझे तद्भव पर उतरि आबी, देशज आ खांटी जमीनी शब्द के, वा परभाषिक ‘पचेबुल’ विदेशज शब्द के, जमीने पर औंघराइत रह’ देल जाय,बिलट’ आ विलुप्त ‘होअय/होअ’ देल जाय?
ई सब बात-विचार, आजुक आ भविष्योक मैथिली भाषा आ साहित्य लेल, कल्याणकारी नहिं अछि। तें सहमत हैब कठिन अछि। नव शब्द-निर्माण-प्रक्रिया के जमीने पर बलजोरी रोकि देल जाय…? आन क्षेत्रीय भाषाक, राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय शब्दक, विज्ञान आ आन विषयक शब्दावलीक,बिना मैथिलीकरण आ बिना आधुनिकीकरण केने, ओहिनाक-ओहिना प्रयोग, रचना मे भरखरि कयल जाय? से एकदम्मे अस्वीकार्य अछि ई सब! ई सब अपन मांटि,शब्द-ब्रह्म आ तकर निर्माण-प्रक्रिया, तीनूक अपमान ‘थिक/छी’!
पं. गोविन्द झा, मैथिलीक कथासंग्रह ‘अतिक्रमण'( तारानंद वियोगी)क ‘भूमिका’ लिखैत, कथाकार के भाषाक बिन्दु पर मात्र ‘पास मार्क्स’ (30%) अही लेल देलनि, जे कथा सब मे मैथिलीक खांटी जमीनी देशज शब्दक अभाव छलनि।तखन फेर तद्भव शब्दक 80 %क जरुरति, की अछि मैथिली मे?
आ ताहि लेल की मिथिलाक पचपन जातिक मुंहक ‘पचपनियां बोली’, जे एखनो ओ सब बजैत छथि, छीनि क’, हुनका सब पर ‘पंचकोसी-दसकोसी-सोइतपुराक अभिजातवर्गीय मैथिली’ अथवा पं. गोविंद झा, डॉ. सुभद्रा झा बला, अथवा रमानन्द झा ‘रमण’बला ‘सोतियाह वर्त्तनी’ बलजोरी थोपि देबनि, जखनकि ओ सब नेपाली भाषाविद् डॉ.रामावतार यादवबला वर्त्तनीक उपयोग एखनहुं, बजनाइ-लिखनाइ मे क’ रहल छथि?
ई भाषाई अत्याचार आब नहि चलत। एतेक दिन धरि अहां सबहक ‘बुझेला’ स’ ओ सब अपन ‘निम्नवर्गीय आ निम्मनवर्गीय मैथिली’ नहि छोड़लनि, त’ ओही ‘गुलो’क बोली मे, मैथिली बेसी सुरक्षित छथि आ ओ बोली सेहो आने बोली जकां, ‘मुख्य मैथिली’ आ मैथिलीक मुख्य धारा के, मजगूत बनाबैत अछि। तें की ‘भाषागत ब्राह्मणवादक’ उदारतापूर्वक त्याग कयल जाय, मैथिलीक वृहत्तर आ नीक भविष्यक लेल ?
कने हृदय विशाल कयल जाय श्रीमान् लोकनि, डॉ. रामावतार यादव आ सुभाष चन्द्र यादव जकां। कनेक बिलमि क’ हमर सबहक अइ आह्वान पर गंभीर भ’ विचार कयल जाय!
की मैथिलीक सभ बोली (नदी-नहरि), मुख्य मैथिलीक ‘गंगा’ के धनीक नहि बनबैत अछि? आ से उदारमना बनने बिना, की ‘सर्वसमावेशी वर्त्तनी’क निर्माण आ अन्तिम निर्णय भ’ सकत?
डा. रामचैतन्य धीरज, ऋग्वेद मे मैथिली शब्दक अनुसन्धान क’ रहल छथि आ तकरा आधार पर, मानुसी भाषाक माध्यमें, मैथिली भाषाक आदिकालीन इतिहास के समृद्ध करबा मे तल्लीन छथि। हुनकर ‘भाषा विचार आ मैथिली’क अन्तर्सम्बन्ध आ अनुसन्धान, जड़ स्वरुपक भाषाशास्त्र के पछुआ रहल अछि, तकर परबाहि प्राचीनतावादी भाषाशास्त्रीगण के हेबाक चाहियनि। आ मैथिली-हित मे, भाषाशास्त्रक नियम सबहक नवीन आ उदार दृष्टिकोणें, माटिपानिबला जमीनी आ व्यावहारिक व्याख्या, करबाके चाहियनि।
आ अंतत:, मुख्य मैथिली भाषा आ बोली सब के, मानकीकरण-अभियान स’ बंचाबैत आ परहेज करैत, ‘फोनेटिक्स आ एकाउस्टिक्सक वैज्ञानिकता’ के स्वीकार करैत, ‘इन्डीजेनस’ ‘खांटी जमीनी शब्दक’ आधुनिकीकरण आ सुपच् विदेशज शब्दोक ‘मैथिलीकरण’ करैत, ‘मुख्य मैथिली’ के, सर्वसमावेशी बनेबाक लेल, ‘मैथिली भाषाक अपन क्षेत्र विस्तारक आधार पर, मात्र ‘वर्त्तनीक’ ‘मानकीकरण’ (एकटा अथवा दू टा सर्वसमावेशी लेखन-वाचन- शैली-निर्धारण धरि सीमित करैत) हेतु, तन्निमित्त/तदर्थ आयोजन हेतु, हम समस्त मैथिलीसेवी संस्थाक आह्वान क’ रहल छी! आबहु, मैथिली भाषा, साहित्य आ समाजक हित मे, नव लेखकगणक हित मे, लेखन शैलीक अराजकता दूर करबाक हेतु सक्रिय हेबाक कृपा करैत जाउ, श्रीमन्तलोकनि!

