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धीरेन्द्र प्रेमर्षिक ‘हम आगि छी’ के भावार्थ : नारायण मधुशाला

उक्त गीतमे कवि धीरेन्द्र प्रेमर्षिजी “आगि” (अग्नि)केँ एकटा स्त्री-रूप प्रतीक बनाकें प्रस्तुत कएने छथि । एकटा एहन शक्तिरूप जे सृष्टि आ संहार दुनुकेँ समेटने अछि, जे पोषण सेहो करैछ आ विनाश सेहो । गीतक वक्ता — एकटा नारी शक्ति (शिवशक्ति) — अपन अस्तित्वक परिचय दैत कहैत अछि :

“सृष्टि विकासक फुलबारीमे, शुरुए घड़ी मजरलौँ हम”
माने, सृष्टिक आरम्भमे सबसँ पहिने हमर उदय भेल अछि । सृष्टिकेँ फूल बनेबामे, जीवन जाेगेबामे, हमहीँ पहिल बूँद छी, हमहीँ पहिल ज्योति छी ।

“जन-जनके जी जान जोगाब, नितहुँ चुल्हि पजरलौँ हम”
हमहीँ गृहिणी छी, मातृशक्ति छी । हम चुल्हिक आगि छी, जे प्रतिदिन लोकक जीवनमे
अन्न, ऊष्मे आ ऊर्जा बनिकेँ प्रज्वलित छी । हमर बिना जीवनमे नइँ त’ उष्मे रहैछ, नइँ अन्न, नइँ अस्तित्व ।

“जीवनकेर हर एक चरणमे, आ जरुरी छियै मरनमे”
हम जीवनमे स्नेहक ज्योति छी, मुदा मृत्युमे सेहो आवश्यक छी । जखन देहक अन्त होइछ, तखन हमहीँ चिताक आगि बनि मोक्षक द्वार खोलैत छी । ई बताबै छै — आगि केवल भौतिक तत्व नहि, जीवन–मरणक दार्शनिक माध्यम छी ।

“स्नेहक उष्मे सदा परैसताे, ठनकाे जकाँ बजरलौँ हम”
हमर स्वरूप द्वैध अछि — स्नेह दैत प्रेमक ज्योति बनैत छी आ अन्याय वा अत्याचार देखिते चण्डी, दुर्गा वा ठनका समान कड़कैत छी । ई नारीक संतुलित रूप अछि — ममता आ प्रतिकार दुनुक सङ ।

“जन्मसँ ल’ मरनाेपरान्त धरि, हमर बेगरता पग-पगमें”
स्त्री कहैत अछि — जन्मसँ ल’ मृत्यु धरि हमर बिना कोनो कर्म पूरा नइँ भ’ सकैछ । हर एक चरणमे, हर एक प्रयत्नमे हमर सहभागिता आवश्यक अछि ।

“विकट गामसँ हँसैत शहर धरि, अराधन अइ जगमे”
माने सुख–दुख, दरिद्रता–समृद्धि, सब अवस्थामे हमहीँ उपस्थित छी । जखन लोक अन्हारमे पडि जाइछ, हम प्रकाश बनिकेँ बाट देखबैत छी ।

“केहनो अन्हार हमरा देखते, जाएत लंक ल’ भागि याै”
अन्हार अर्थात अज्ञान, पापक शक्तिकेँ हमर ज्योति सह्य नइँ — ओ भागि जाइत अछि । आगि सदैव अन्धकारक विरोधक प्रतीक अछि ।

“हमहीँ सब सुड्डाह करी जँ अपने जाइछी लागि याै”
मुदा जखन अत्याचार, अन्याय, अधर्म बढ़ि जाइछ, तखन हमहीँ कालीक रूप धारण करैत छी, सब अशुद्धता, अहंकार आ अंधविश्वासकें जराक’ नष्ट करैत छी । ई चेतावनी सेहो अछि — आगिक सँग खेलब नइँ । सदुपयोग करब, तँ जीवन–दायिनी बनि रहब अा दुरुपयोग करब, तँ विनाशिनी ।

“हम आगि छी, हमर जतन करु
हमर क्राेधकें ज्ञानसँ पतन करु”
हम आगि छी — ई उद्घोष ई केवल एकटा आत्म-घोषणा नहि, ई स्त्री-शक्ति आ आत्मचेतनाक उद्घोष अछि । आगिकेँ ज्ञानसँ संयमित करबाक शिक्षा — “हमर क्रोधकें ज्ञानसँ पतन करु”
माने, भावना आ शक्तिकेँ विवेकसँ नियन्त्रित करू । क्रोधकेँ ज्ञानसँ सहबै त’ ओ विनाश नइँ करैछ — ओ सुधार करैछ ।

नारीक द्वैध स्वरूप – सृजन आ संहार : गीतक दोसर अंशमे कवि नारी (आगि)क द्वैध स्वरूप स्पष्ट करैत छथि :
“अाेना त’ हमर महत्त्व दुर्गुण दूनु अइ सबहक ज्ञानमें”
माने हमर महत्व सेहो लोक बुझैछ आ हमर क्रोधसँ डर सेहो करैछ । हम अपन रूप अनुकूल करैत छी — जखन कोमलता चाही, हम स्निग्ध ज्योति छी; जखन अन्याय होइछ, तखन प्रचण्ड लपट छी ।

“गुण्क्त सब उपयोग करै छी रहए ने अवगुण ध्यानमे”
जे आगिकेँ संयमसँ उपयोग करैछ, ओ ताहिसँ जीवन पाबैछ; जे अविवेकसँ प्रयोग करैछ, ओ विनाशक शिकार बनैछ । ई ओहि सिद्धान्तक दार्शनिक रूपक अछि — “ऊर्जा तटस्थ छै — ओकर उपयोगपर निर्भर करैछ कि ओ सृष्टि करैछ वा विध्वंस।”

“पाेसि सबैछी मनमे हमरा वनमे मुदा नइँ सुनगी हम”
माने हम सभक हृदयमे बसैत छी, प्रेरणा बनिकेँ, ऊर्जाक स्रोत बनिकेँ; मुदा अगर हमरा अनसुना कएल गेल, तँ हम भयंकर बनि जइछी ।

“विध्वंसक बस जडि धरब त’ चाेटहि पहुँचब फुनगी हम”
जखन ओध (नकारात्मकता) केर जड़ जमि जाइछ, त’ हम चिनगी बनिकेँ ओकर छातीपर परैत छी । ई ओहि रूपक प्रतीक अछि — नारीक चेतना जे अन्यायपर मौन नइँ रहैछ ।

दार्शनिक गूढ़ार्थ:
आगि = शक्ति = नारी = सृष्टि-संहारक शक्ति : कवि आगिकेँ केवल भौतिक तत्व नहि, जीवनशक्ति, नारीशक्ति आ आत्मज्योति रूपमे देखबैत छथि ।

स्नेह आ क्रोधक समन्वय: आगि स्नेहक उष्मे सेहो अछि आ क्रोधक प्रचण्डता सेहो — ई दुनु सन्तुलन जीवनमे आवश्यक अछि ।

ई गीत एकटा नारीक आत्मस्वरूपक उद्घोष अछि । ओ कहैत अछि — हम मातृशक्ति छी, प्रेमक स्रोत छी, मुदा अन्याय देखिते दुर्गा बनैत छी । हम सृष्टिक पहिल ज्योति छी — जीवनक आरम्भमे, भोजनक चुल्हिमे, चिताक अग्निमे, सबठाम हमर उपस्थिति अछि । हम स्नेह छी, परंतु सँगहि न्यायक क्रोध सेहो छी । हम आगि छी — जाहि बिना सृष्टि अपूर्ण अछि, जाहि बिना प्रकाश नहि, ताप नहि, प्राण नइँ ।

धीरेन्द्र प्रेमर्षिजीक ई गीत नारीकेँ “अग्निरूपा शक्ति”क प्रतीक बनवैत, आत्मबल, सृजनशक्ति, आ प्रचण्ड ऊर्जा सभक जीवनमे अपन स्थान बुझबैत अछि । ई गीत केवल आगिकेँ नहि, “नारी–शक्ति, विवेक आ सृजन”क स्तुतिगान अछि ।

गीत :

सृष्टि विकासक फुलबारीमे, शुरुए घडी मजरलौँ हम
जन–जनके जी जान जोगाब, नितहुँ चुल्हि पजरलौँ हम
जीवनकेर हर एक चरणमें, अाैर जरुरी छियै मरनमें
स्नेहक उष्मे सदा परैसताे, ठनकाे जकाँ बजरलाैं हम

जन्मसँ ल’ मरनाेपरान्त धरि, हमर बेगरता पग-पगमें
विकट गामसँ हँसैत शहर धरि, अराधन यहि जगमें
केहनाे अन्हार हमरा देखते, जाएत लंक ल’ भागि याै
हमहीँ सब सुड्डाह करी जँ अपने जाइछी लागि याै
हम आगि छी, हमर जतन कर
हमर क्राेधकें ज्ञानसँ पतन करु

अाेना त’ हमर महत्त्व दुर्गुण दूनु अइ सबहक ज्ञानमें
गुण्क्त सब उपयोग करै छी रहए ने अवगुण ध्यानमें
पाेसि सबैछी मनमे हमरा वनमे मुदा नइँ सुनगी हम
विध्वंसक बस जडि धरब त’ चाेटहि पहुँचब फुनगी हम
पाइन जेहन जैरीए सब सँग राखु नित हमरा तागि याै
हमहीँ सब सुड्डाह करी जँ अपने जाइछी लागि याै
हम आगि छी, हमर जतन कर
हमर क्राेधकें ज्ञानसँ पतन क

— लेखक : नारायण मधुशाला

( * द्रष्टव्य : ई गीत धीरेन्द्र प्रेमर्षिक शब्द-सङ्गीत, तेजू मैथिल, सञ्जय कल्याण आ ज्योति विश्वकर्माक स्वरमे आगिक जतन करबाक प्रयोजनसँ सामाजिक चेतनामूलक गीतक रुपमे प्रेसित अछि। अइ ठाम उक्त गीतक अन्तिम अन्तरा उल्लेख नइँ कएल गेल अछि। अन्तिम अन्तरा हटाक’ विश्लेषक अपन विचार व्यक्त कएने छथि जेँ कि निसंदेह ‘हम आगि छी’ नारीक एकटा विराट परिचयक शिखर ठाढ़ करैत अछि। – आइ लभ मिथिला )

नारायण मधुशाला

तेज नारायण यादव, सिरहा । न्यूज रिपोर्ट । ilovemithila.com । । कवि। गीतकार

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